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समयसार
अपना आत्मा स्वयं के लिए न तो संयोगी पदार्थ ही है और न ज्ञानी को उसमें मूर्च्छा ही होती है। अतोऽहमपि न तत् परिगृह्णामि
मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज ।
णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ ।। २०८ ॥ छिज्जदुवा भिज्जदुवा णिज्जदुवा अहव जादु विप्पलयं । जम्हा तम्हा गच्छदु तह वि हु ण परिग्गहो मज्झ ।। २०९।। मम परिग्रहो यदि ततोऽहमजीवतां तु गच्छेयम् ।
ज्ञातैवाहं यस्मात्तस्मान्न परिग्रहो मम ।। २०८ ।। छिद्यतां वा भिद्यतां वा नीयतां वाथवा यातु विप्रलयम् ।
यस्मात्तस्मात् गच्छतु तथापि खलु न परिग्रहो मम । । २०९ ।।
यहाँ तो 'परि' माने चारों ओर से 'ग्रह' माने ग्रहण करना है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार किसी वस्तु को चारों ओर से ग्रहण करना ही परिग्रह है । यह आत्मा अपने आत्मा को चारों ओर से ग्रहण करता है, ग्रहण किये रहता है; इसीलिए यह कहा गया है कि निज आत्मा ही आत्मा का परिग्रह है । अपने आत्मा को ही निजरूप जानना मानना ही चारों ओर से ग्रहण करना है।
और दूसरी बात यह है कि यहाँ 'स्व' की सीमा में अपना आत्मद्रव्य, उसमें विद्यमान अनन्त गुण और उन गुणों की आत्मोन्मुखी निर्मल पर्यायें ही आती हैं; विकारी पर्यायें या संयोगी पदार्थ नहीं आते।
इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि ज्ञानी जीव अपने आत्मा को छोड़कर किसी अन्य पदार्थ या विकारी भावों को अपना नहीं जानते, अपना नहीं मानते ।
जो बात विगत गाथा में कही गई है; अब उसी बात को सयुक्ति सिद्ध करते ज्ञानी की भावना को, ज्ञानी के निश्चय को व्यक्त करते हैं
हु आचार्यदेव
( हरिगीत )
यदि परिग्रह मेरा बने तो मैं अजीव बनूँ अरे ।
पर मैं तो ज्ञायकभाव हूँ इसलिए पर मेरे नहीं ।। २०८ ।।
छिद जाय या ले जाय कोइ अथवा प्रलय को प्राप्त हो ।
जावे चला चाहे जहाँ पर परिग्रह मेरा नहीं ।। २०९ ।।
यदि परद्रव्यरूप परिग्रह मेरा हो तो मैं अजीवत्व को प्राप्त हो जाऊँ । चूँकि मैं तो ज्ञाता ही हूँ; इसलिए परद्रव्यरूप परिग्रह मेरा नहीं है।
यह परद्रव्यरूप परिग्रह छिद जाये, भिद जाये, कोई इसे ले जाये अथवा नष्ट हो जाये, प्रलय को प्राप्त हो जाये; अधिक क्या कहें - चाहे जहाँ चला जाये;
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• इससे मुझे क्या ? क्योंकि यह