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निर्जराधिकार
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में ही अपनापन स्थापित कर लेता है, तब वह स्वयं ही ऐसा अनुभव करने लगता है कि मैं स्वयं ही कुतो ज्ञानी परं न परिगृह्णातीति चेत् -
कोणा भणिज्ज हो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं । अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो ।। २०७ ।।
को नाम भणेद्बुधः परद्रव्यं ममेदं भवति द्रव्यम् ।
आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियतं विजानन् । ।२०७।।
यतो हि ज्ञानी, यो हि यस्य स्वो भाव: स तस्य स्व: स तस्य स्वामी इति खरतरतत्त्वदृष्ट्यवष्टंभात्, आत्मानमात्मन: परिग्रहं तु नियमेन विजानाति, ततो न ममेदं स्वं, नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्यं न परिग्रह्णाति ।। २०७ ।।
अचिन्त्यशक्ति का धारक देवाधिदेव हूँ, चिन्मात्रचिन्तामणि हूँ और मेरे सभी प्रयोजन सिद्ध ही हैं अथवा ऐसी श्रद्धा होने से, ऐसा ज्ञान होने से मेरा अनन्तसुखी होने का प्रयोजन सहज ही सिद्ध हो गया है। इसप्रकार की अनुभूति करनेवाले ज्ञानी जीवों को अन्य पर-पदार्थों के परिग्रह से क्या प्रयोजन रह जाता है, शुभाशुभ भावों और शुभाशुभ क्रियाकाण्डों से भी क्या प्रयोजन रह जाता है ? इस २०७वीं गाथा की उत्थानिका के रूप में समागत इस १४४वें कलश में यह कहा गया था कि ज्ञानी को अन्य परिग्रह से क्या प्रयोजन है ?
अब इस गाथा में उसी बात की पुष्टि करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
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( हरिगीत ) आतमा ही आतमा का परिग्रह
यह जानकर ।
'पर द्रव्य मेरा है' - बताओ कौन बुध ऐसा कहे ? ।। २०७ ।।
अपने आत्मा को ही नियम से अपना परिग्रह जानता हुआ कौन-सा ज्ञानी यह कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा द्रव्य है ?
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लौकिक सज्जन पुरुष भी लोक में परपदार्थ को अपना नहीं कहता, उस पर अधिकार करने की चेष्टा नहीं करता; तो फिर अलौकिक आत्मज्ञानी पुरुष पर को अपना कैसे मान सकता है, जान सकता है और उनसे चिपटा भी कैसे रह सकता है ?
इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है
" जो जिसका स्वभाव है, वह स्वभाव उसका 'स्व' है और वह उस स्वभाव का स्वामी है इसप्रकार तीक्ष्ण तत्त्वदृष्टि के अवलम्बन से ज्ञानी अपने आत्मा को ही नियम से अपना परिग्रह (सर्वस्व) जानता है; इसलिए 'यह मेरा स्व नहीं है, मैं इसका स्वामी नहीं हूँ' - ऐसा जानता हुआ परद्रव्य का परिग्रह नहीं करता अर्थात् परद्रव्य को अपना नहीं मानता।"
इस गाथा के सन्दर्भ में दो बातें विशेष जानने योग्य हैं।
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पहली बात तो यह है कि यहाँ पर परिग्रह का अर्थ मूर्च्छा या संयोगी पदार्थ नहीं है; क्योंकि