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समयसार
तत्तु तत्क्षण एव त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि, मा अन्यान् प्राक्षीः ।।२०६।।
(उपजाति) अचिंत्यशक्तिः स्वयमेव देवश्चिन्मात्रचिंतामणिरेष यस्मात् ।
सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण ।।१४४।। उस सुख को तू उसी क्षण स्वयं ही देखेगा; इसलिए दूसरों से मत पूछ अथवा दूसरों से पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। ‘अति प्रश्न मत कर' - पाठान्तर में ऐसा भी प्राप्त होता है।" ___ उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा ही ज्ञानपद से अभिहित किया जाता है और वह ही एकमात्र परमार्थ आत्मा है, कल्याणकारी आत्मा है, अनुभव करने योग्य आत्मा है; अत: प्रत्येक आत्मार्थी का एकमात्र परमकर्तव्य उस आत्मा को प्राप्त कर, उसी में लीन होना है, उसी में संतुष्ट रहना है और उसी में सम्पूर्णत: तृप्त भी रहना है; क्योंकि उत्तम सुख प्राप्त करने का एकमात्र उपाय वही है। ___ आत्मख्याति के अन्तिम अंश में एक अति महत्त्वपूर्ण बात यह कही गई है कि जब तू इस भगवान आत्मा को जानेगा, उसी में जमेगा, रमेगा, संतुष्ट होगा, तृप्त होगा; तब जो उत्तम सुख प्राप्त होगा; वह तेरे अनुभव में स्वयं ही आ जायेगा, किसी अन्य से पूछने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
अत: अधिक प्रश्न करने से विराम ले; अधिक विकल्प करने से विराम ले और सम्पूर्ण शक्ति से हमारे बताये उक्त मार्ग में लग जा।
अब उक्त ज्ञानानुभव की ही महिमा बताते हुए आगामी गाथा की विषयवस्तु की सूचना देने वाला कलशकाव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(दोहा) अचिंत्यशक्ति धारक अरे, चिन्तामणि चैतन्य। सिद्धारथ यह आतमा, ही है कोई न अन्य ।। सभी प्रयोजन सिद्ध हैं, फिर क्यों पर की आश।
ज्ञानी जाने यह रहस, करे न पर की आश।।१४४।। यह ज्ञानी आत्मा स्वयं ही चिन्मात्रचिन्तामणि है और अचिन्त्यशक्तिवाला देव है: इसकारण इसके सर्व प्रयोजन स्वयं ही सिद्ध हैं। इसलिए अब इसे अन्य किसी पदार्थ के परिग्रह (संग्रह) से क्या प्रयोजन है ?
यद्यपि इस कलश में समागत अचिन्त्यशक्ति, चिन्मात्रचिन्तामणिदेव एवं सर्वार्थसिद्धात्मा - ये विशेषण त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के हैं; तथापि जब ज्ञानी आत्मा उक्त त्रिकाली ध्रुव आत्मा