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________________ निर्जराधिकार ३११ शुभाशुभभाव आत्मा के विकारी परिणाम होने से बंध के कारण हैं। किंच - एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि। एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ।।२०६।। एतस्मिन् रतो नित्यं संतुष्टो भव नित्यमेतस्मिन् । एतेन भव तृप्तो भविष्यति तवोत्तमं सौख्यम् ।।२०६।। एतावानेव सत्य आत्मा यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्र एव नित्यमेव रतिमुपैहि । एतावत्येव सत्याशी: यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव संतोषमुपैहि । एतावदेव सत्यमनुभवनीयं यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव तृप्तिमुपैहि । अथैवं तव नित्यमेवात्मरतस्य, आत्मसंतुष्टस्य आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति । जो बंध का कारण हो, वह धर्म कैसे हो सकता है और उससे आत्मोपलब्धि भी कैसे हो सकती है ? इसीप्रकार क्रियाकाण्डरूप जड़ की क्रिया से आत्मा के धर्म का क्या संबंध ? यही कारण है कि आचार्यदेव यहाँ सहज-बोध-कला का अभ्यास करने की प्रेरणा दे रहे हैं; क्योंकि आत्मा की प्राप्ति का एकमात्र उपाय आत्मानुभूति ही है। अबतक यह कहा गया है कि एक ज्ञानपद ही स्वपद है, प्राप्त करने योग्य है, आश्रय करने योग्य है और उसकी प्राप्ति ज्ञान के ही माध्यम से होगी, अन्य किसी क्रियाकाण्ड या शुभाशुभभाव से नहीं। अब आगामी गाथा २०६ में यह कह रहे हैं कि तुम एक ज्ञानमय पद को प्राप्त करके उसमें ही सन्तुष्ट हो जाओ; उससे तुम्हें उत्तम सुख की प्राप्ति होगी। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) इस ज्ञान में ही रत रहो सन्तुष्ट नित इसमें रहो। बस तृप्त भी इसमें रहो तो परमसुख को प्राप्त हो ।।२०६ ।। हे भव्यप्राणी ! तू इस ज्ञानपद को प्राप्त करके इसमें ही लीन हो जा, इसमें ही निरन्तर सन्तुष्ट रह और इसमें ही पूर्णतः तृप्त हो जा; इससे ही तुझे उत्तम सुख (अतीन्द्रिय-आनन्द) की प्राप्ति होगी। इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जितना यह ज्ञान है, उतना ही सत्य आत्मा है - ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्र में ही सदा रति कर, रुचि कर, प्रीति कर। जितना यह ज्ञान है, उतना ही सत्य आशीष (कल्याण) है - ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्र से ही सदा सन्तुष्ट रह, सन्तोष को प्राप्त कर। जितना यह ज्ञान है, उतना ही सत्य अनुभव करने योग्य है - ऐसा निश्चय करके उस ज्ञानमात्र में सदा तृप्त हो जा, तृप्ति का अनुभव कर। इसप्रकार सदा आत्मा में ही रत, आत्मा में ही सन्तुष्ट और आत्मा में तृप्त तुझको वचन अगोचर सुख प्राप्त होगा।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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