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समयसार प्रकाशन होता है; इसलिए मात्र ज्ञान से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसकारण बहुत से ज्ञानशून्य मुपलभंते, इदमनुपलभमानाश्च कर्मभि न मुच्यते। तत: कर्ममोक्षार्थिना केवलज्ञानावष्टंभेन नियतमेवेदमेकं पदमुपलभनीयम् ।।२०५।।
(द्रुतविलंबित) पदमिदं ननु कर्मदुरासदं सहजबोधकलासुलभं किल ।
तत इदं निजबोधकलाबलात्कलयितुंयततांसततं जगत्।।१४शा जीव अनेकप्रकार के कर्म (क्रियाकाण्ड) करने पर भी इस ज्ञानपद (आत्मा) को प्राप्त नहीं कर पाते और इस ज्ञानपद को प्राप्त नहीं कर पाने से वे कर्मों से मुक्त भी नहीं होते।
इसलिए जो जीव कर्मों से मुक्त होना चाहते हैं; उन्हें एकमात्र इस ज्ञान (आत्मज्ञान) के अवलम्बन से इस नियत एकपद (आत्मा) को प्राप्त करना चाहिए।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि जिन्हें आत्मकल्याण करना हो, वे आत्मज्ञान की दिशा में सक्रिय हों; मात्र क्रियाकाण्ड में उलझे रहने से कुछ भी होनेवाला नहीं है।
भूमिकानुसार सदाचरण तो होना ही चाहिए और सज्जनों के होता भी है; तथापि उस सदाचार से आत्मोपलब्धि होनेवाली नहीं है। __इस कथन से यह अत्यन्त स्पष्ट हो गया है कि यहाँ ज्ञानगुण का आशय निर्विकार परमात्मतत्त्व की उपलब्धि से है और इसके बिना हम चाहे जितना दुर्धर तप करें, तब भी हमें आत्मोपलब्धि नहीं होगी। अब इसी भाव का पोषक कलशरूप काव्य कहते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(दोहा ) क्रियाकाण्ड से ना मिले, यह आतम अभिराम । ज्ञानकला से सहज ही, सुलभ आतमाराम ।। अतः जगत के प्राणियो! छोड जगत की आश।
ज्ञानकला का ही अरे! करो नित्य अभ्यास ।।१४३।। इस ज्ञानस्वरूप पद को कर्मों (क्रियाकाण्डों) से प्राप्त करना दुरासद है, संभव नहीं है; यह तो सहज ज्ञानकला से ही सुलभ है। इसलिए हे जगत के प्राणियो ! तुम इस ज्ञानपद को निजात्मज्ञान की कला के बल से प्राप्त करने का निरन्तर प्रयास करो, अभ्यास करो।
इस कलश में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि किसी भी कर्म से धर्म नहीं होता । कर्म का आशय यहाँ सभीप्रकार के शुभाशुभभाव और धर्म के नाम पर होनेवाले सभीप्रकार के क्रियाकाण्ड से है। तात्पर्य यह है कि किसी भी प्रकार के शुभाशुभभाव या किसी भी प्रकार के धार्मिक क्रियाकाण्ड से आत्मोपलब्धि नहीं हो सकती; क्योंकि क्रियाकाण्ड तो जड़ की परिणति है और