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निर्जराधिकार
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णाणगुणेण विहीणा एवं तु पदं बहु वि ण लहंते। तं गिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं ।।२०५।।
ज्ञानगुणेण विहीना एतत्तु पदं बहवोऽपि न लभंते ।
तद्गृहाण नियतमेतद् यदीच्छसि कर्मपरिमोक्षम् ।।२०५।। यतो हि सकलेनापि कर्मणा, कर्मणि ज्ञानस्याप्रकाशनात्, ज्ञानस्यानुपलंभः। केवलेन ज्ञानेनैव, ज्ञानम् एव ज्ञानस्य प्रकाशनात्, ज्ञानस्योपलंभः। ततो बहवोऽपि बहुनापि कर्मणा ज्ञानशून्या नेद
(हरिगीत ) पंचाग्नि तप या महाव्रत कुछ भी करो सिद्धि नहीं। जाने बिना निज आतमा जिनवर कहें सब व्यर्थ हैं।। मोक्षमय जो ज्ञानपद वह ज्ञान से ही प्राप्त हो।
निज ज्ञान गुण के बिना उसको कोई पा सकता नहीं।।१४२।। स्वयं की कल्पना से जिनमत अस्वीकार्य करके और मोक्षमार्ग के विरुद्ध कठिनतर प्रवृत्ति करके दुःख पाओ तो पाओ अथवा आत्मज्ञान बिना किये गये जिनागम कथित महाव्रतादि
और तप के भार से भग्न होते हुए चिरकाल तक क्लेश भोगो तो भोगो; किन्तु साक्षात् मोक्षस्वरूप, स्वयं संवेद्यमान, निरामय इस ज्ञानपद को ज्ञानगुण के बिना किसी भी प्रकार से प्राप्त नहीं किया जा सकता।
साक्षात् मोक्षस्वरूप जो यह ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा है, उसे आत्मोन्मुखी ज्ञान से ही प्राप्त किया जा सकता है। उसे प्राप्त करने का अन्य कोई उपाय नहीं है। इस कलश में तो यहाँ तक कहा है कि चाहे जिनागम में कथित व्रतादि पालो, तपश्चरण आदि करो; चाहे जैनेतरों के यहाँ प्रचलित क्रियाकाण्ड करो, तपादि तपो; किन्तु आत्मज्ञान के बिना आत्मोपलब्धि सम्भव नहीं है।
जो बात विगत कलश में कही गई है, उसी बात को अब मूल गाथा में कहते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) इस ज्ञानगुण के बिना जन प्राप्ति न शिवपद की करें।
यदि चाहते हो मुक्त होना ज्ञान का आश्रय करो ।।२०५।। ज्ञानगुण (आत्मानुभव) से रहित बहुत से लोग अनेकप्रकार के क्रियाकाण्ड करते हुए भी इस ज्ञानस्वरूप पद (आत्मा) को प्राप्त नहीं कर पाते; इसलिए हे भव्यजीवो ! यदि तुम कर्म से पूर्ण मुक्ति चाहते हो तो इस नियत ज्ञान को ग्रहण करो।
इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“समस्त कर्मों (क्रियाकाण्डों) में प्रकाशन का अभाव होने से कर्मों (क्रियाकाण्डों) से ज्ञान (आत्मा) की प्राप्ति नहीं होती; किन्तु ज्ञान (आत्मानुभव) से ही ज्ञान (आत्मा) का