________________
३०८
समयसार इस टीका में इस बात पर जोर दिया गया है कि सामान्यज्ञान मतिज्ञानादि भेदोंरूप परिणमित होने पर भी उनके द्वारा भेद को प्राप्त नहीं होता; अभेद-अखण्ड-सामान्य ही रहता है और उक्त
(शार्दूलविक्रीडित ) अच्छाच्छा: स्वयमुच्छलंति यदिमा: संवेदनव्यक्तयो निष्पीताखिलभावमंडलरसप्राग्भारमत्ता इव । यस्याभिन्नरस: स एष भगवानेकोऽप्यनेकीभवन्
वल्गत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः ।।१४१।। किंच -
क्लिश्यतां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः क्लिश्यतां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं
ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमते न हि ।।१४२।। सामान्यज्ञानरूप निज भगवान आत्मा के आश्रय से निजपद की प्राप्ति होती है. भ्रान्ति का नाश होता है, राग-द्वेष-मोह का अभाव होता है, आस्रव-बंध रुकते हैं, संवर-निर्जरा होकर साक्षात् मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसप्रकार यहाँ स्पष्ट किया गया है कि सामान्यज्ञानरूप आत्मा के आश्रय से इतना लाभ प्राप्त होता है।
यद्यपि यह भगवान आत्मा मोक्षरूप ही है; तथापि पर्याय में मुक्ति प्राप्त होने के कारण यहाँ मोक्ष के साथ साक्षात् विशेषण का उपयोग किया गया है। अब इसी अर्थ को व्यक्त करनेवाला कलशरूप काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(हरिगीत ) सब भाव पी संवेदनाएँ मत्त होकर स्वयं ही। हों उछलती जिस भाव में अद्भुतनिधि वह आतमा।। भगवान वह चैतन्य रत्नाकर सदा ही एक है।
फिर भी अनेकाकार होकर स्वयं में ही उछलता ।।१४१।। जिसकी निर्मल से भी निर्मल संवेदन व्यक्तियाँ अर्थात् ज्ञानपर्यायें समस्त पदार्थों के समूहरूपी रस को पी लेने से मानो मदोन्मत्त होती हुई अपने आप उछलती हैं; वह यह अद्भुतनिधिवाला, ज्ञानपर्यायरूपी तरंगों से अभिन्न भगवान चैतन्यरत्नाकर (आत्मा) एक होने पर भी अनेक होता हुआ ज्ञानपर्यायरूपी तरंगों के द्वारा उछलता है, दोलायमान होता है।
इस कलश में भगवान आत्मा को चैतन्यरत्नाकर कहा है। तात्पर्य यह है कि भगवान आत्मा की तुलना रत्नाकर (समुद्र) से की है।
अब आगे के कलश में कहते हैं कि आत्मा को जाने बिना कुछ भी करो, सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं होगी। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -