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निर्जराधिकार
सब एक पद परमार्थ हैं पा इसे जन शिवपद लहें ।। २०४।।
आत्मा किल परमार्थः, तत्तु ज्ञानम्; आत्मा च एक एव पदार्थ:, ततो ज्ञानमप्येकमेव पदं; यदेतत्तु ज्ञानं नामैकं पदं स एष परमार्थ: साक्षान्मोक्षोपायः । न चाभिनिबोधिकादयो भेदा इदमेकं पदमिह भिंदन्ति तेऽपीदमेवैकं पदमभिनंदन्ति ।
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तथाहि - यथात्र सवितुर्घनपटलावगुंठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकट्यमासादयत: प्रकाशनातिशयभेदा न तस्य प्रकाशस्वभावं भिंदन्ति, तथा आत्मन: कर्मपटलोदयावगुंठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकट्यमासादयतो ज्ञानातिशयभेदा न तस्य ज्ञानस्वभावं भिंद्युः, किंतु प्रत्युत तमभिनंदेयुः ।
ततो निरस्तसमस्तभेदमात्मस्वभावभूतं ज्ञानमेवैकमालम्ब्यम् ।
तदालम्बनादेव भवति पदप्राप्तिः, नश्यति भ्रांति:, भवत्यात्मलाभः, सिध्यत्यनात्म परिहारः, न कर्म मूर्छति, न रागद्वेषमोहा उत्प्लवंते, न पुनः कर्म आस्रवति, न पुनः कर्म बध्यते, प्राग्बद्धं कर्म उपभुक्तं निर्जीर्यते, कृत्स्नकर्माभावात् साक्षान्मोक्षो भवति ।। २०४ ।।
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान यह एक ही पद है; क्योंकि ज्ञान के समस्त भेद ज्ञान ही हैं। इसप्रकार यह सामान्य ज्ञानपद ही परमार्थ है, जिसे प्राप्त करके आत्मा निर्वाण को प्राप्त होता है।
इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है
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" वास्तव में आत्मा ही परमार्थ है, परम पदार्थ है और वह ज्ञान ही है। आत्मा एक ही पदार्थ है; इसलिए ज्ञान भी एक पद है। यह ज्ञान नामक पद ही परमार्थ स्वरूप साक्षात् मोक्ष का उपाय है । मतिज्ञानादि ज्ञान के भेद इस एक पद को नहीं भेदते; किन्तु वे भी इसी एक पद का अभिनन्दन करते हैं ।
अब इसी बात को सोदाहरण स्पष्ट करते हैं - जिसप्रकार इस जगत में बादलों से ढका हुआ सूर्य बादलों के विघटन के अनुसार प्रगटता को प्राप्त होता है और उस सूर्य के प्रकाश करने की हीनाधिकतारूप भेद, उसके सामान्य प्रकाशस्वभाव को नहीं भेदते; उसीप्रकार कर्मपटल के उदय से ढका हुआ आत्मा, कर्म के विघटन (क्षयोपशम) के अनुसार प्रगटता को प्राप्त होता है और उस ज्ञान के हीनाधिकतारूप भेद उसके सामान्य ज्ञानस्वभाव को नहीं भेदते, प्रत्युत अभिनन्दन करते हैं ।
इसलिए समस्त भेदों से पार आत्मस्वभावभूत एक ज्ञान का ही अवलम्बन करना चाहिए ।
उस ज्ञान के अवलम्बन से निजपद की प्राप्ति होती है, भ्रान्ति का नाश होता है, आत्मा का लाभ और अनात्मा का परिहार होता है। ऐसा होने पर कर्म मूर्च्छित नहीं करते, राग-द्वेष-मोह उत्पन्न नहीं होते । राग-द्वेष-मोह के बिना कर्मों का आस्रव नहीं होता । आस्रव न होने से फिर कर्मबन्ध भी नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्म उपभुक्त होते हुए निर्जरित हो जाते हैं; तब सभी कर्मों का अभाव हो जाने से साक्षात् मोक्ष हो जाता है ।"