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ज्ञानभावरूप वह पद ही आस्वादन करने के योग्य है।
तथाहि
( शार्दूलविक्रीडित ) एकज्ञायकभावनिर्भरमहास्वादं समासादयन् स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् । आत्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यद्विशेषोदयं सामान्यं कलयन् किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम् ।।१४०।।
समयसार
आभिणिसुदोधिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं । सो ऐसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि । । २०४ ।। आभिनिबोधिक श्रुतावधिमन:पर्ययकेवलंच तद्भवत्येकमेव पदम् ।
स एष परमार्थो यं लब्ध्वा निर्वृत्तिं याति । । २०४ । ।
इस कलश में यही कहा गया है कि जिसमें एकत्व स्थापित करने से, जिसे अपना जानने-मानने से, जिसमें जमने-रमने से सभी विपत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं, अनन्त दुःख दूर हो जाते हैं और जिसकी तुलना में जगत के अन्य सभी पद अपद भासित होते हैं, तुच्छ भासित होते हैं; वह ज्ञानपद ही एकमात्र आस्वादन करने योग्य है, आराधना के योग्य है, साधना के योग्य है ।
इसलिए हे भव्यजीवो ! तुम एकमात्र इस ज्ञानपद की आराधना में अपने जीवन को लगा दो । अब आगामी गाथा का सूचक कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
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( हरिगीत )
उस ज्ञान के आस्वाद में ही नित रमे जो आतमा । अर द्वन्द्वमय आस्वाद में असमर्थ है जो आतमा ।। आत्मानुभव के स्वाद में ही मगन है जो आतमा । सामान्य में एकत्व को धारण करे वह आतमा । । १४० ।।
द्वन्द्वमय स्वाद के लेने में असमर्थ एक ज्ञायकभाव से भरे हुए महास्वाद को लेता हुआ तथा आत्मानुभव के अनुभाव से विवश निज वस्तुवृत्ति को जानता हुआ यह आत्मा ज्ञान के विशेषों के उदय को गौण करता हुआ और मात्र सामान्यज्ञान का अभ्यास करता हुआ सकल ज्ञानको एकत्व में लाता है, एक रूप में प्राप्त करता है।
उक्त कलश में आत्मानुभव की प्रक्रिया दिखाते हुए यह बताया गया है कि आत्मानुभव में विशेषज्ञान का तिरोभाव और सामान्यज्ञान का आविर्भाव होता है तथा आत्मानुभव के रस के सामने अन्य सभी रस फीके पड़ जाते हैं ।
जो बात १४०वें कलश में कही गई है, अब वही बात इस २०४वीं गाथा में कहते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत ) मतिश्रुतावधिमन:पर्यय और केवलज्ञान भी ।