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समयसार
३०० अमृतचन्द्र की आत्मख्याति से कुछ अन्तर पाया जाता है। तात्पर्यवृत्ति में पाई जानेवाली वे गाथायें इसप्रकार हैं -
(मन्दाक्रान्ता) सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बंधो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु । आलंबंतां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः ।।१३७।। पुग्गलकम्मं कोहो तस्स विवागोदयो हवदि एसो। ण दु एस मज्झ भावो जाणगभावो दु अहमिक्को ।। कह एस तुज्झ ण हवदि विविहो कम्मोदयफलविवागो। परदव्वाणुवओगो ण दु देहो हवदि अण्णाणी ।।
( हरिगीत ) पुद्गलकरम है क्रोध उसके उदय ये परिणाम हैं। किन्तु ये मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हँ।। विविध कर्मोदयी फल किसतरह तेरे हैं नहीं।
क्योंकि तन अज्ञानिजन स्वभाव मेरे हैं नहीं।। यह क्रोध पुदगलकर्म है। उसके विपाक का उदय मेरा भाव नहीं है; मैं तो एक ज्ञायकभाव हूँ।
यह विविध कर्मोदय के फल का विपाकरूप विभाव परिणाम तेरा स्वभाव कैसे नहीं है ? परद्रव्य के उदय में उत्पन्न होनेवाले अज्ञानभाव और शरीरादि मेरा स्वभाव नहीं है। इन गाथाओं के उपरान्त तात्पर्यवृत्ति टीका में एक गाथा और आती है, जो आत्मख्याति की १९८वीं गाथा के समान ही है। इसकी चर्चा पहले हो ही चुकी है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि १९८ से २०० तक की उक्त तीन गाथाओं में यह सतर्क सिद्ध किया गया है कि सम्यग्दृष्टि के ज्ञान और वैराग्य नियम से होता है। यद्यपि वह बाहर से भोगों में लिप्त दिखाई देता है; तथापि अंतरंग में वह भोगों से विरक्त ही रहता है।
इन गाथाओं के उपरान्त आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में एक कलश लिखते हैं, जिसमें यह कहा गया है कि जो जीव परद्रव्यों में आसक्त हों, आकण्ठ डूबे हों या आत्मा को समझे बिना ही महाव्रतधारी बन गये हों; समितियों का पालन करने लगे हों और स्वयं को सम्यग्दृष्टि मान बैठे हों; वे सभी अज्ञानी ही हैं, मिथ्यादृष्टि ही हैं और उनकी यह मान्यता एकदम गलत है; क्योंकि सम्यग्दृष्टियों के अनर्गल प्रवृत्ति तो होती ही नहीं है; साथ ही सम्यग्दर्शन के बिना सच्चे अणुव्रत