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________________ निर्जराधिकार ३०१ महाव्रत भी नहीं होते, सच्ची समितियाँ भी नहीं होतीं। उस कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ हूँ बंध से विरहित सदा। यह मानकर अभिमान में पुलकित वदन मस्तक उठा।। जो समिति आलंबें महाव्रत आचरें पर पापमय । दिग्मूढ़ जीवों का अरे जीवन नहीं अध्यात्ममय ।।१३७।। 'यह मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे कभी बंध नहीं होता; क्योंकि शास्त्रों में लिखा है कि सम्यग्दृष्टि को बंध नहीं होता' - ऐसा मानकर जिनका मुख ऊँचा और पुलकित हो रहा है - ऐसे रागी (मिथ्यात्वसहित रागवाले) जीव भले ही महाव्रतादि का आचरण करें तथा समितियों की उत्कृष्टता का आलंबन करें; तथापि वे पापी (मिथ्यादृष्टि) ही हैं; क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से सम्यक्त्व से रहित हैं। __ स्थिति यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवों के सम्यग्ज्ञान तो होता ही है; अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव के कारण तत्संबंधी रागभाव का भी अभाव होता है। अतः सम्यग्दृष्टि को ज्ञान-वैराग्य से सम्पन्न कहा गया है, फिर भी उसके अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के उदयानुसार रागभाव पाया जाता है और तदनुसार भोगों में प्रवृत्ति भी देखी जाती है। वह प्रवृत्ति चक्रवर्तियों जैसी भी हो सकती है। यह तो आप जानते ही हैं कि चक्रवर्ती की पट्टरानी को मासिकधर्म नहीं होता; उसके कोई सन्तान भी नहीं होती। इसकारण चक्रवर्ती के भोग निरन्तराय होते हैं। यदि पट्टरानी मासिकधर्म से हो या उसके सन्तान हो तो चक्रवर्ती के भोगों में अंतराय होने की संभावना बनी रहती है। युद्धादि में भी वे प्रवृत्त होते ही हैं। ऐसे होने पर भी सम्यग्दर्शन होने के कारण उनका उन भोगों में और रागादि भावों में एकत्व-ममत्व नहीं होता , कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं होता; इसकारण उनके भोगों को निर्जरा का कारण कहा जाता है। _इस बात का आधार लेकर कोई मूढजीव आत्मानुभूति के बिना ही अपने को सम्यग्दृष्टि मान ले और 'सम्यग्दृष्टि को बंध नहीं होता' शास्त्र के इस वचन के आधार पर यह मानकर कि मैं तो सम्यग्दृष्टि हूँ; अत: मुझे तो बंध हो ही नहीं सकता; इसलिए मुझे विषयभोगों से विरक्त होने की क्या आवश्यकता है - ऐसी विपरीत मान्यता के कारण भोगों में लिप्त रहे, अनर्गल प्रवृत्ति करे अथवा 'आत्मानभव के बिना ही. सम्यग्दर्शन के बिना ही बाह्य भोगों के त्याग देने मात्र से धर्म हो जाता है' - ऐसा मानकर भोगों को त्याग कर महाव्रतों का कठोरतापूर्वक आचरण करे, समितियों का आलम्बन करे - इन दोनों ही स्थितियों में वह पापी ही है, मिथ्यादृष्टि ही है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि भोगों में अनर्गलप्रवृत्ति करनेवालों को आप भले ही पापी कहें; पर महाव्रतों के पालन करनेवालों को, समितियों का आचरण करनेवालों को पापी क्यों कहते हो ? उत्तर यह है कि पर में एकत्व-ममत्व और कर्तत्व-भोक्तत्वबुद्धिरूप मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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