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निर्जराधिकार
स्वरूप) को जानता हुआ कर्म के विपाकरूप उदय को छोड़ता है। ये कर्मोदयविपाकप्रभवा विविधा भावा न ते मम टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावोऽहम् ।
अस्ति किल रागो नाम पुद्गलकर्म, तदुदयविपाकप्रभवोऽयं रागरूपो भाव:, न पुनर्मम स्वभावः । एष टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावोऽहम् ।
एवमेव च रागपदपरिवर्तनेन द्वेषमोहक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्प्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि, अनया दिशा अन्यान्यप्यूह्यानि ।
एवं च सम्यग्दृष्टिः स्वं जानन् रागं मुंचश्च नियमाज्ज्ञानवैराग्यसंपन्नो भवति
एवं सम्यग्दृष्टि: सामान्येन विशेषेण च परस्वभावेभ्यो भावेभ्यो सर्वेभ्योऽपि विविच्य टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावस्वभावमात्मनस्तत्त्वं विजानाति । तथा तत्त्वं विजानंश्च स्वपरभावोपादानापोहननिष्पाद्यं स्वस्य वस्तुत्वं प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि मुञ्चति ।
ततोऽयं नियमात् ज्ञानवैराग्यसंपन्नो भवति ।। १९८-२०० ।।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है
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स्वभावाः । एष
"कर्मोदय के विपाक से उत्पन्न हुए ये अनेकप्रकार के भाव और रागनामक पुद्गलकर्म के उदय के विपाक से उत्पन्न ये रागभाव मेरे स्वभाव नहीं हैं; क्योंकि मैं तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव हूँ।
राग के स्थान पर द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन - ये पद रखकर सोलह सूत्र बनाकर व्याख्यान करना चाहिए। इसीप्रकार और भी अनेक सूत्र बनाये जा सकते हैं ।
इसप्रकार सम्यग्दृष्टि अपने को जानता और राग को छोड़ता हुआ नियम से ज्ञान-वैराग्य सम्पन्न होता है ।
इसप्रकार सम्यग्दृष्टि १९८वीं गाथा में सामान्यतया और १९९वीं गाथा में विशेषतया बताये गये परभावस्वरूप सब भावों से स्वयं को भिन्न जानकर टंकोत्कीर्ण ज्ञायकस्वभावी आत्मतत्त्व को भलीभाँति जानता है।
इसप्रकार तत्त्व को जानता हुआ तथा स्वभाव के ग्रहण और परभाव के त्याग से उत्पन्न होने योग्य अपने वस्तुत्व को विस्तरित (प्रसिद्ध) करता हुआ वह सम्यग्दृष्टि कर्मोदय के विपाक से उत्पन्न हुए समस्त भावों को छोड़ता है।
इसलिए वह नियम से ज्ञान-वैराग्य सम्पन्न होता है ।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि जब आत्मा समस्त परभावों एवं रागादिभावों से अपने आत्मा को सामान्यरूप से और विशेषरूप से भिन्न जान लेगा; तब वह नियम से ज्ञानरूप रहेगा और वैराग्य से सम्पन्न होगा। यह बात अनुभव से भी पुष्ट होती है और यही सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा का चिह्न भी है।
उक्त तीनों गाथाओं में से आरंभ की दो गाथाओं में आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति में आचार्य