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________________ समयसार २९८ होती ही है। सम्यग्दृष्टिः सामान्येन विशेषेण च स्वपरावेवं तावज्जानाति - उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं । ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को ॥१९८।। पोग्गलकम्मं रागो तस्स विवागोदओ हवदि एसो। ण दु एस मज्ज भावो जाणगभावो हु अहमेक्को ।।१९९।। एवं सम्माद्दिट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं । उदयं कम्मविवागं च मुयदि तच्चं वियाणंतो ।।२००।। उदयविपाको विविधः कर्मणां वर्णितो जिनवरैः । न तु ते मम स्वभावा: ज्ञायकभावस्त्वहमेकः ।।१९८।। पुद्गलकर्म रागस्तस्य विपाकोदयो भवति एषः। न त्वेष मम भावो ज्ञायकभावः खल्वहमेकः ।।१९९।। एवं सम्यग्दृष्टिः आत्मानं जानाति ज्ञायकस्वभावम् । उदयं कर्मविपाकं च मुंचति तत्त्वं विजानन् ।।२००।। अब आगामी (१९८ से २००) तीन गाथाओं में यह बताते हैं कि सम्यग्दृष्टि अपने आत्मा को सामान्यरूप से और विशेषरूप से परभावों से भिन्न जानता हुआ नियम से ज्ञान-वैराग्य सम्पन्न किसप्रकार होता है ? गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) उदय कर्मों के विविध-विध सूत्र में जिनवर कहें। किन्तु वे मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ।।१९८ ।। पुद्गल करम है राग उसके उदय ये परिणाम हैं। किन्तु ये मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ।।१९९।। इसतरह ज्ञानी जानते ज्ञायकस्वभावी आतमा। कर्मोदयों को छोड़ते निजतत्त्व को पहिचान कर ।।२००।। जिनेन्द्र भगवान ने कर्मों के उदय का विपाक (फल) अनेकप्रकार का कहा है; किन्तु वे मेरे स्वभाव नहीं हैं; मैं तो एक ज्ञायकभाव ही हूँ। राग पुद्गलकर्म है, उसका विपाकरूप उदय मेरा नहीं है, क्योंकि मैं तो एक ज्ञायकभाव ही हूँ। इसप्रकार सम्यग्दृष्टि अपने आत्मा को ज्ञायकस्वभाव जानता है और तत्त्व (वस्तु के वास्तविक
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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