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________________ २९२ समयसार उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं । जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ।।१९३।। उपभोगमिंद्रियैः द्रव्याणामचेतनानामितरेषाम् । यत्करोति सम्यग्दृष्टिः तत्सर्वं निर्जरानिमित्तम् ।।१९३।। विरागस्योपभोगो निर्जरायै एव । रागादिभावानां सद्भावेन मिथ्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बंधनिमित्तमेव स्यात् । स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेर्निर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदितम् ।।१९३।। अग्नि फैल रही है। इसकारण निरावरण होती हई ज्ञानज्योति फिर कभी भी रागादि भावों के द्वारा मूर्छित नहीं होगी, सदा अमूर्छित ही रहेगी। इस कलश में यह बताया गया है कि आगामी कर्मों को तो संवर ने रोक दिया और पूर्वबद्धकर्मों को निर्जरा निर्मूल कर रही है। इसप्रकार समस्त कर्मों का अभाव हो जाने से ज्ञानज्योति ऐसी प्रकाशित हो रही है कि वह फिर कभी भी मूर्छित नहीं होगी, सदा जाग्रत ही रहेगी। देखो, यहाँ आचार्यदेव कह रहे हैं कि संवर अपनी कार्यधुरा को पूरी तरह सँभाल कर खड़ा है। तात्पर्य यह है कि संवर अपना कार्य करने के लिए कमर कस कर तैयार है। संवर का कार्य आगामी कर्मों को बँधने से रोकना है। संवर अपने इस कार्य को सँभल कर सम्पन्न कर रहा है। इसीप्रकार निर्जरा भी पुराने कर्मों को काटने में जमकर लगी हुई है। इसप्रकार जब नये कर्म तो बँधेगे नहीं और पुराने सब नष्ट हो जायेंगे तो मोक्ष होना निश्चित ही है। मोक्ष होने पर ज्ञानज्योति सदा अमूर्छित ही रहेगी; क्योंकि अब उसके मूर्छित होने का कोई कारण ही नहीं रहा। इसप्रकार मंगलाचरण के इस कलश में यही कहा गया है कि संवर ने आगामी कर्मों के आस्रव (आने) को रोक दिया है और निर्जरा पुराने कर्मों को नष्ट कर रही है - इसकारण अब ज्ञानज्योति सदा ही अखण्डरूप से प्रकाशित रहेगी। ___ मंगलाचरण के कलश के उपरान्त अब निर्जराधिकार की मूल गाथायें आरंभ करते हैं। उसमें सर्वप्रथम द्रव्यनिर्जरा का स्वरूप बताते हैं - (हरिगीत) चेतन अचेतन द्रव्य का उपभोग सम्यग्दृष्टि जन। जो इन्द्रियों से करें वह सब निर्जरा का हेतु है ।।१९३ ।। सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियों के द्वारा चेतन-अचेतन द्रव्यों का जो भी उपभोग करता है, वह सभी निर्जरा का निमित्त है। आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इस गाथा के भाव को इसप्रकार व्यक्त करते हैं - “विरागी का उपभोग निर्जरा के लिए ही है। यद्यपि रागादिभावों के सद्भाव से चेतनअचेतन द्रव्यों का उपभोग मिथ्यादृष्टि के लिए बंध का निमित्त होता है; तथापि वही उपभोग रागादिभावों के अभाव के कारण सम्यग्दृष्टियों के लिए निर्जरा का निमित्त होता है। इसप्रकार यह द्रव्यनिर्जरा का स्वरूप कहा।"
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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