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निर्जराधिकार
२९३ अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति -
दव्वे उवभुंजते णियमा जायदि सुहं व दुक्खं वा। तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अध णिज्जरं जादि ।।१९४।।
द्रव्ये उपभुज्यमाने नियमाज्जायते सुखं वा दुःखं वा।
तत्सुखदुःखमुदीर्णं वेदयते अथ निर्जरां याति ।।१९४।। उपभुज्यमाने सति हि परद्रव्ये तन्निमित्तः सातासातविकल्पानतिक्रमणेन वेदनाया: सुखरूपो वा दुःखरूपो वा नियमादेव जीवस्य भाव उदेति।
स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टेः रागादिभावानां सद्भावेन बंधनिमित्तं भूत्वा निर्जीर्यमाणोऽप्यनिर्जीर्णः सन् बंध एव स्यात्; सम्यग्दृष्टेस्तु रागादिभावानामभावेन बंधनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो निर्जीर्णः सन्निर्जरैव स्यात् ।।१९४।।
विगत गाथा में द्रव्यनिर्जरा का स्वरूप स्पष्ट किया गया था और अब इस गाथा में भावनिर्जरा का स्वरूप समझाते हैं। भावनिर्जरा का स्वरूप समझानेवाली उस गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत ) सुख-दुख नियम से हों सदा परद्रव्य के उपभोग से।
अर भोगने के बाद सुख-दुख निर्जरा को प्राप्त हों।।१९४।। परद्रव्य का उपभोग होने पर सुख अथवा दुःख नियम से उत्पन्न होता है। उदय को प्राप्त उन सुख-दुःखों का अनुभव होने के बाद वे सुख-दुःख निर्जरा को प्राप्त हो जाते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“परद्रव्य भोगने में आने पर उसके निमित्त से जीव के सुखरूप या दुःखरूप भाव नियम से ही उदित होता है; क्योंकि वेदन साता और असाता - इन विकल्पों (प्रकारों) का अतिक्रम (उल्लंघन) नहीं करता।
उक्त सुखरूप या दुःखरूप भाव के वेदन होने पर मिथ्यादष्टि को रागादिभावों के सदभाव से बंध का निमित्त होकर वह भाव निर्जरा को प्राप्त होता हुआ भी वस्तुत: निर्जरित न होता हुआ बंध को ही प्राप्त होता है; किन्तु सम्यग्दृष्टि के रागादिभावों के अभाव से बंध का निमित्त हुए बिना मात्र निर्जरित होने से वस्तुतः निर्जरित होता हुआ निर्जरित ही होता है।"
इस गाथा और टीका में यह कहा जा रहा है कि चाहे सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि - दोनों के ही परद्रव्य भोगने में आने पर सुख-दुःखरूप भाव तो होते ही हैं; क्योंकि इनके बिना वेदन संभव ही नहीं है; किन्तु भोग और वेदन समान होने पर भी सम्यग्दृष्टि के निर्जरा होती है और मिथ्यादृष्टि के बंध; क्योंकि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी संबंधी राग-द्वेष विद्यमान होने से वे भोग और वेदन बंध करके निर्जरित होते हैं; इसकारण उसके बंध ही है और सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व और अनंतानबंधी राग-द्वेष के अभाव से वे भोग और वेदन बिना बंध किये ही निर्जरित हो जाते हैं: