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________________ निर्जराधिकार अथ प्रविशति निर्जरा। (शार्दूलविक्रीडित ) रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरां धृत्वा परः संवरः कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूरान्निरुधन स्थितः। प्राग्बद्धं तु तदेव दग्धुमधुना व्याजृम्भते निर्जरा ज्ञानज्योतिरपावृतं न हि यतो रागादिभिर्मूर्छति ।।१३३।। मंगलाचरण (दोहा) शुद्धातम में रत रहो, यही श्रेष्ठ आचार । शुद्धातम की साधना, कही निर्जरा सार ।। जीवाजीवाधिकार से संवराधिकार तक भगवान आत्मा को परपदार्थों और विकारीभावों से भिन्न बताकर अनेकप्रकार से भेदविज्ञान कराया गया और अब निर्जराधिकार में संवरदशा को प्राप्त सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा, आत्मा की आराधना करके विकारी भावों रूप भावकर्मों एवं ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों की निर्जरा कैसे करता है - यह बताते हैं। ___ वास्तविक निर्जरा तो निजात्मा के आश्रय से होनेवाली शुद्धि की वृद्धि ही है; किन्तु उसके निमित्त से जो सत्ता में विद्यमान कर्मों का अभाव होता है, उसे भी निर्जरा कहा जाता है। सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा जीवों के दोनों प्रकार की निर्जरा निरंतर होती ही रहती है। ___ धर्म की उत्पत्ति संवर, धर्म की वृद्धि निर्जरा और धर्म की पूर्णता मोक्ष है। आत्मशुद्धि ही धर्म है; अत: इसे इसप्रकार भी कह सकते हैं कि निज भगवान आत्मा के ज्ञान-श्रद्धानपूर्वक होनेवाले आत्मध्यान से जो शुद्धता प्रगट होती है, वह संवर है; उसी आत्मध्यान से उक्त शुद्धता में जो वृद्धि होती है, वह निर्जरा है और उसी विधि से पूर्ण शुद्धता का प्रगट हो जाना मोक्ष है। ___ इस अधिकार की आत्मख्याति टीका का आरंभ आचार्य अमृतचन्द्र इस नाटक समयसार के रंगमंच पर अब निर्जरा प्रवेश करती है' - इस वाक्य से करते हैं। अधिकार के आरंभ में मंगलाचरण के रूप में ज्ञानज्योति का स्मरण करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र एक छन्द लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) आगामि बंधन रोकने संवर सजग सन्नद्ध हो । रागादि के अवरोध से जब कमर कस के खड़ा हो ।। अर पूर्वबद्ध करम दहन को निरजरा तैयार हो। तब ज्ञानज्योति यह अरे नित ही अमूर्छित क्यों न हो ॥१३३।। परमसंवर रागादि आस्रवभावों के रोकने से अपनी कार्यधुरा को धारण करके समस्त आगामी कर्मों को परिपूर्ण दूरी से ही रोके खड़ा है और अब पूर्वबद्ध कर्मों को जलाने के लिए निर्जरारूपी
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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