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( मन्दाक्रान्ता )
भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्धतत्त्वोपलंभाद्रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां
संवरेण ।
बिभ्रत्तोष परमममलालोकमम्लानमेकं ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् । । १३२।।
इति संवरो निष्क्रांत: ।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ संवरप्ररूपकः पञ्चमोऽङ्कः। संवराधिकार की समाप्ति पर आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र अन्तमंगल के रूप में ज्ञानज्योति का स्मरण इसप्रकार करते हैं
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रोला )
भेदज्ञान से शुद्धतत्त्व की उपलब्धि हो ।
शुद्धतत्त्व की उपलब्धि से रागनाश हो । रागनाश से कर्मनाश अर कर्मनाश से ।
ज्ञान ज्ञान में थिर होकर शाश्वत
समयसार
जावे ।। १३२ ।।
भेदविज्ञान प्रगट करने के अभ्यास से शुद्धतत्त्व की उपलब्धि हुई; शुद्धतत्त्व की उपलब्धि से रागसमूह प्रलय हुआ, रागसमूह के विलय करने से कर्मों का संवर हुआ और कर्मों का संवर होने से ज्ञान में ही निश्चल हुआ ज्ञान उदय को प्राप्त हुआ। निर्मल प्रकाश और शाश्वत उद्योतवाल वह एक अम्लान ज्ञान परमसन्तोष को धारण करता है ।
इस कलश में यह बताया गया है कि भेदविज्ञान के बल से संवरपूर्वक परमसन्तोष को धारण करनेवाला निर्मल शाश्वत ज्ञान प्रगट होता है ।
इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि भेदविज्ञान से ही आस्रवों का अभाव होकर संवर प्रगट होता है, परिपूर्णज्ञान की प्राप्ति होती है और अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द भी प्राप्त होता है ।
इसप्रकार संवर रंगभूमि से बाहर निकल गया है।
इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका में संवर का प्ररूपक पाँचवाँ अंक समाप्त हुआ ।
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