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संवराधिकार
२८९ ( अनुष्टुभ् ) भावयेद्भेद-विज्ञान-मिदमच्छिन्न-धारया। तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते ।।१३०।। भेदविज्ञानत: सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन ।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥१३१।। 'भेदविज्ञान कब तक भाना चाहिए' - इस बात को बतानेवाले कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है
(रोला) अरे भव्यजन ! भव्यभावना भेदज्ञान की।
सच्चे मन से बिन विराम के तबतक भाना ।। जबतक पर से हो विरक्त यह ज्ञान ज्ञान में।
ही थिर ना हो जाय अधिक क्या कहें जिनेश्वर ।।१३०।। यह भेदविज्ञान अविच्छिन्न धारा से, अखण्डरूप से तबतक भाना चाहिए; जबतक कि ज्ञान परभावों से छूटकर ज्ञान (आत्मा) में ही प्रतिष्ठित न हो जाये।
इस कलश में यह कहा गया है कि भेदविज्ञान की भावना तबतक भाना चाहिए, जबतक कि ज्ञान, ज्ञान में प्रतिष्ठित न हो जाये।
ज्ञान ज्ञान में प्रतिष्ठित दो प्रकार से होता है१. मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यग्ज्ञान हो और फिर मिथ्यात्व न हो। २. जब ज्ञान शुद्धोपयोगरूप में स्थिर हो जाये और फिर विकाररूप परिणमित न हो।
जबतक ज्ञान दोनों प्रकार से ज्ञान में स्थिर न हो जाये; तबतक भेदविज्ञान को भाते रहना चाहिए। भेदविज्ञान की अकाट्य महिमा प्रदर्शित करनेवाले कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला ) अबतक जो भी हुए सिद्ध या आगे होंगे।
महिमा जानो एकमात्र सब भेदज्ञान की। और जीव जो भटक रहे हैं भवसागर में।
__भेदज्ञान के ही अभाव से भटक रहे हैं।।१३१।। आजतक जो कोई भी सिद्ध हए हैं; वे सब भेदविज्ञान से ही सिद्ध हए हैं और जो कोई बँधे हैं; वे सब उस भेदविज्ञान के अभाव से ही बँधे हैं।
भेदविज्ञान की महिमा इससे अधिक और क्या बताई जा सकती है कि आजतक जितने भी जीव मोक्ष गये हैं, वे सब भेदविज्ञान से गये हैं और जो जीव कर्मों से बँधे हैं, संसार में अनादि से अनन्त दु:ख उठा रहे हैं; वे सब भेदविज्ञान के अभाव से ही उठा रहे हैं।