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________________ समयसार २८८ ( उपजाति) संपद्यते संवर एष साक्षाच्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलंभात् । स भेदविज्ञानत एव तस्मात् तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम् ।।१२९।। भावक्रोधादि जीवरूप को जीवभावगत भावकर्म कहते हैं और पुद्गलपिण्डशक्तिरूप को पुद्गलद्रव्यगतभावकर्म कहते हैं। कहा भी है - पग्गलपिंडो दव्वं कोहादि भावदव्वंत त - इसे जीवभावगत कहते हैं और पग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मंतु - इसे पुद्गलद्रव्यगत कहते हैं। उदाहरण के तौर पर कहा जा सकता है कि मधुर या कड़वे को खाते समय उसके मधुर या कड़वे स्वाद को चखने रूप जो जीव का विकल्प होता है, उसे जीव भावगत कहते हैं और उसकी अभिव्यक्ति के कारणभूत मधुर या कड़वे पदार्थ में रहनेवाले शक्ति के अंशविशेष को पुद्गलगत कहते हैं। इसप्रकार भावकर्म का स्वरूप जीवगत और पुद्गलगत दो प्रकार का है - ऐसा भावकर्म के व्याख्यान के समय सर्वत्र समझना चाहिए।" ___अब भेदविज्ञान की महिमा का निरूपक संवराधिकार समाप्त हो रहा है। अत: अब भेदविज्ञान की भावना भाने की प्रेरणा देने के लिए आचार्य अमृतचन्द्र तीन कलश काव्य लिखते हैं और उसके बाद अधिकार की समाप्ति पर जिसप्रकार प्रत्येक अधिकार के आदि व अन्त में ज्ञानज्योति का स्मरण करते आ रहे हैं; उसीप्रकार इस अधिकार के अंत में भी ज्ञानज्योति का स्मरण करेंगे। उक्त कलशों में से भेदविज्ञान की भावना भाने की प्रेरणा देनेवाले प्रथम कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) आत्मतत्त्व की उपलब्धि हो भेदज्ञान से। आत्मतत्त्व की उपलब्धि से संवर होता ।। इसीलिए तो सच्चे दिल से नितप्रति करना। ___अरे भव्यजन ! भव्यभावना भेदज्ञान की ।।१२९।। वस्तुत: बात यह है कि इस संवर का साक्षात्कार अथवा साक्षात् संवर शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि से ही होता है और शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि एकमात्र भेदविज्ञान से ही होती है। इसलिए वह भेदविज्ञान अत्यन्त भाने योग्य है। यह अत्यन्त सरल, सहज एवं प्रेरक छन्द है। इसमें दो टूक शब्दों में यह कहा गया है कि भवदुःखों से छूटने रूप संवर शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि से ही होता; धर्म के नाम पर चलनेवाले अन्य क्रियाकाण्डों या शुभभावरूप व्यवहारधर्म से नहीं होता। शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि भी बाह्यक्रियाकाण्डों या दया, दानादि के शुभभावों से नहीं होती। शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि एकमात्र भेदविज्ञान से ही होती है। इसलिए भेदविज्ञान की भावना ही निरन्तर भाने योग्य है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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