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संवराधिकार
२८७ संति तावजीवस्य आत्मकर्मैकत्वाध्यासमूलानि मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानि अध्यवसानानि । तानि रागद्वेषमोहलक्षणस्यास्रवभावस्य हेतवः। आस्रवभाव: कर्महेतुः । कर्म नोकर्महेतुः । नोकर्म संसारहेतुः इति । ततो नित्यमेवायमात्मा आत्मकर्मणोरेकत्वाध्यासेन मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगमयमात्मानमध्यवस्यति । ततो रागद्वेषमोहरूपमास्रवभावं भावयति । ततः कर्म आम्रवति । ततो नोकर्म भवति । तत: संसारः प्रभवति ।
यदा तु आत्मकर्मणोर्भेदविज्ञानेन शुद्धचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं उपलभते तदा मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानां अध्यवसानानां आस्रवभावहेतूनां भवत्यभावः । तदभावे रागद्वेषमोहरूपास्रवभावस्य भवत्यभावः । तदभावे भवति कर्माभावः । तदभावेऽपि भवति नोकर्माभावः । तदभावेऽपि भवति संसाराभावः । इत्येष संवरक्रमः ।।१९०-१९२।।
आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“प्रथम तो इस जीव के विद्यमान आत्मा और कर्म के एकत्वमूलक मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग ही मोह-राग-द्वेषरूप आम्रवभाव के कारण हैं; आस्रवभाव कर्म का कारण है; कर्म नोकर्म का कारण है और नोकर्म संसार का कारण है।
इसकारण यह आत्मा सदा ही आत्मा और कर्म के एकत्व के अध्यास से आत्मा को मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योगमय मानता है अर्थात् मिथ्यात्वादि अध्यवसान करता है। इसलिए मोह-राग-द्वेषरूप आस्रवभाव को भाता है; उससे कर्मास्रव होता है, कर्मास्रव से नोकर्म होता है और नोकर्म से संसार उत्पन्न होता है।
किन्तु जब यह आत्मा, आत्मा और कर्म के भेदविज्ञान से शुद्धचैतन्यचमत्कारमात्र आत्मा को उपलब्ध करता है, आत्मा का अनुभव करता है; तब आस्रवभाव के कारणभूत मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योगस्वरूप अध्यवसान का अभाव होता है; अध्यवसान के अभाव होने पर मोह-राग-द्वेषरूप आम्रवभावों का अभाव होता है; आस्रवभावों का अभाव होने पर कर्म का अभाव होता है; कर्म का अभाव होने पर नोकर्म का अभाव होता है और नोकर्म का अभाव होने पर संसार का अभाव होता है। इसप्रकार यह संवर का क्रम है।"
मुल गाथाओं और उनकी इस टीका में मात्र इतना ही अन्तर है कि गाथाओं में तो अकेले आस्रव के निरोध का ही क्रम बताया था; पर टीका में आस्रव का भी क्रम बता दिया गया है।
यद्यपि आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवत्ति में आत्मख्याति का ही अनुसरण करते हैं; तथापि उन्होंने कुछ नया प्रमेय भी प्रस्तुत किया है, जो इसप्रकार है -
“शंका - अध्यवसान तो भावकर्मरूप होते हैं, वे तो जीवगत ही होते हैं। उन्हें आप यहाँ उदयप्राप्त पुद्गल द्रव्यप्रत्ययगत क्यों बता रहे हैं ?
समाधान - ऐसा नहीं है; क्योंकि भावकर्म दो प्रकार के होते हैं - जीवगत भावकर्म और पुद्गलकर्मगत भावकर्म।