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संवराधिकार
केन प्रकारेण संवरो भवतीति चेत् -
अप्पाणमप्पणा रुंधिऊण दोपुण्णपावजोगेसु । दंसणणाणम्हि ठिदो इच्छाविरदो य अण्णम्हि ।।१८७।। जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा । ण वि कम्मं णोकम्मं चेदा चिंतेदि एयत्तं ।। १८८ । । अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमओ अणण्णमओ । लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ।। १८९ ।। आत्मानमात्मना रुन्ध्वा द्विपुण्यपापयोगयोः । दर्शनज्ञाने स्थित: इच्छाविरतश्चान्यस्मिन् । । १८७ । ।
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शिथिल करता हुआ आगे बढ़ता है और नित्य वृद्धिंगत यह धारावाही ज्ञान ही एक दिन केवलज्ञान के रूप में परिणमित हो जाता है।
अत: यह कहना अनुचित नहीं है कि देशनालब्धि से लेकर केवलज्ञान की प्राप्ति तक एकमात्र आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ ज्ञान की यह धारावाहिकता ही है। सम्यग्दर्शन के पूर्व यह धारा देशनाधारित होती है और सम्यग्दर्शन के बाद आत्मानुभवाधारित हो जाती है।
सम्यग्दर्शन प्राप्ति के बाद की यह ज्ञानधारा लब्धिरूप भी हो सकती है और उपयोगरूप भी । लब्धिरूप ज्ञानधारा तो सम्यग्दर्शन होने के बाद अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान से आगे जबतक क्षायोपशमिकज्ञान है, तबतक निरंतर ही बनी रहती है और उसके बल साधक आत्मा निरंतर आगे बढ़ता रहता है; किन्तु उपयोगरूप ज्ञानधारा नीचे के गुणस्थानों में भूमिकानुसार कभी-कभी ही होती है और उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी में निरंतर बनी रहती है।
यदि हम गहराई से ध्यान दें तो इस कलश में आत्मा से परमात्मा बनने की सम्पूर्ण प्रक्रिया स्पष्ट कर दी गई है। इस एक ही कलश में - छन्द में आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया का क्रमिक विकास सम्पूर्णतः दर्शा दिया गया है।
यदि अति संक्षेप में कहें तो हम कह सकते हैं कि परभावों से भिन्न निजस्वभाव को जानना और उसी में जम जाना, रम जाना ही धर्म है, संवर है, निर्जरा है और मोक्ष भी यही है।
विगत गाथा में कहा था कि शुद्धात्मा की उपलब्धि से संवर होता है और अब इन गाथाओं की उत्थानिका में कहा जा रहा है कि संवर किसप्रकार होता है ?
इस प्रश्न का उत्तर देनेवाली गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
पुण्य एवं पाप से निज आतमा को रोककर । अन्य आशा से विरत हो ज्ञान-दर्शन में रहें ।। १८७ ।।