________________
२८२
समयसार
यः सर्वसंगमुक्तो ध्यायत्यात्मानमात्मनात्मा । नापि कर्म नोकर्म चेतयिता चिंतयत्येकत्वम् ।। १८८ ।। आत्मानं ध्यायन् दर्शनज्ञानमयोऽनन्यमयः ।
लभतेऽचिरेणात्मानमेव स कर्मप्रविमुक्तम् ।। १८९ ।।
यो हि नाम रागद्वेषमोहमूले शुभाशुभयोगे वर्तमानं दृढतरभेदविज्ञानावष्टम्भेन आत्मानं आत्मनैवात्यंतं रुन्ध्वा शुद्धदर्शनज्ञानात्मन्यात्मद्रव्ये सुष्ठु प्रतिष्ठितं कृत्वा समस्तपरद्रव्येच्छापरिहारेण समस्तसंगविमुक्तो भूत्वा नित्यमेवातिनिष्प्रकंपः सन् मनागपि कर्मनोकर्मणोरसंस्पर्शेन आत्मीयमात्मानमेवात्मना ध्यायन् स्वयं सहजचेतयितृत्वादेकत्वमेव चेतयते, स खल्वेकत्वचेतनेनात्यंतविविक्तं विरहित करम नोकरम से निज आत्म के एकत्व को ।
निज आतमा को स्वयं ध्यावें सर्व संग विमुक्त हो । । १८८ । । ज्ञान-दर्शन मय निजातम को सदा जो ध्यावते ।
अत्यल्पकाल स्वकाल में वे सर्व कर्म विमुक्त हों ।। १८९ । ।
आत्मा को आत्मा के ही द्वारा पुण्य-पाप इन दोनों योगों से रोककर दर्शन - ज्ञान में स्थित होता हुआ 'और अन्य वस्तुओं की इच्छा से विरत होता हुआ जो आत्मा सर्वसंग से रहित होता हुआ, अपने आत्मा को आत्मा के द्वारा ध्याता है और कर्म तथा नोकर्म को नहीं ध्याता एवं स्वयं चेतयितापन होने से एकत्व का चिन्तवन करता है, अनुभव करता है; वह आत्मा, आत्मा को ध्याता हुआ, दर्शन-ज्ञानमय और आनन्दमय होता हुआ अल्पकाल में ही कर्मों से रहित आत्मा को प्राप्त करता है।
इन गाथाओं में यही कहा गया है कि जो आत्मा स्वयं के ही पुरुषार्थ से अपने उपयोग को पुण्यपाप भावों और उनके फल से विरत कर ज्ञानदर्शनस्वभावी अपने आत्मा में लगाता है, अपने आत्मा को ही ध्याता है, उसमें ही अपनापन स्थापित करता है; मोह-राग-द्वेषरूप भावकर्मों, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों और शरीरादि नोकर्मों से एकत्व - ममत्व तोड़कर उनसे विरत होता है; वह आत्मा अल्पकाल में ही आतमा को ध्याता हुआ सर्वकर्मों से रहित आत्मा को पाता है अर्थात् मुक्त हो जाता है।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है
-
"राग-द्वेष- मोहमूलक शुभाशुभयोग में प्रवर्तमान जो जीव दृढ़तर भेदविज्ञान के आलम्बन से आत्मा को आत्मा के ही द्वारा रोककर स्वयं को शुद्धदर्शन - ज्ञानरूप आत्मद्रव्य में भलीभाँति प्रतिष्ठित (स्थिर) करके, समस्त परद्रव्यों की इच्छा के त्याग से सर्वसंग रहित होकर निरन्तर अति निष्कम्प वर्तता हुआ, कर्म-नोकर्म का किंचित्मात्र भी स्पर्श किये बिना अपने आत्मा को ही अपने आत्मा द्वारा ध्याता हुआ, स्वयं सहज चेतयितापन होने से स्वयं के एकत्व को ही चेतता है, अनुभव करता है, ज्ञान चेतनारूप ही रहता है; वह जीव वास्तव में एकत्व में किये गये संचेतन के द्वारा, एकत्व के अनुभवन के द्वारा, परद्रव्यों से अत्यन्त भिन्न चैतन्यचमत्कार