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समयसार
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(मालिनी) यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते । तदय-मुदय-दात्माराममात्मानमात्मा
परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति ।।१२७।। शुद्धात्मा को प्राप्त करते हैं, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमित हो जाते हैं, अनन्तसुखी हो जाते हैं, सिद्धदशा को प्राप्त हो जाते हैं; किन्तु जो जीव आत्मा को अशुद्ध अनुभव करते हैं, उसे रागीद्वेषी-मोही मानते हैं, जानते हैं; गोरा-भूरा मानते हैं, जानते हैं; वे जीव अशुद्धता को प्राप्त होते हैं, राग-द्वेष-मोहरूप परिणमित होते रहते हैं।
अत: आत्मार्थी भाई-बहिनों का यह परम कर्तव्य है कि वे अपने आत्मा को सही रूप में, शुद्धरूप में जानें-पहिचानें, उसी में अपनापन स्थापित करें, जिससे शुद्धात्मा को प्राप्त कर शुद्धतारूप परिणमित होकर अनन्त सुख-शान्ति प्राप्त कर सकें। अब इसी अर्थ का पोषक कलश काव्य कहते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) भेदज्ञान के इस अविरल धाराप्रवाह से।
कैसे भी कर प्राप्त करे जो शद्धातम को।। और निरन्तर उसमें ही थिर होता जावे।
पर परिणति को त्याग निरंतर शुध हो जावे ।।१२७ ।। यदि किसी भी प्रकार से अर्थात् काललब्धि आने पर तीव्र पुरुषार्थ करके धारावाही ज्ञान से शुद्ध आत्मा को निश्चलतया अनुभव किया करे तो यह आत्मा परपरिणति के निरोध होने से नित्य वृद्धिंगत आनन्दवाले आत्मा को शुद्ध ही प्राप्त करता है। ___ इस कलश में आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि निरंतर धारावाहिकरूप से प्रवर्तित ज्ञान ही शुद्धात्मा की प्राप्ति का एकमात्र अमोघ उपाय है। देशनालब्धि से लेकर केवलज्ञान की प्राप्ति तक एकमात्र पुरुषार्थ ज्ञान की यह धारावाहिक प्रवृत्ति ही है।
सर्वप्रथम जब यह आत्मा देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से देशनालब्धि को प्राप्त होता है; उनकी वाणी में प्रतिपादित वस्तुस्वरूप को विशेषकर आत्मवस्तु को विकल्पात्मक ज्ञान में समझपूर्वक सम्यनिर्णय करता है और अपने ज्ञानोपयोग को उसी में लगाता है; तब इसी पुरुषार्थ के बल से काललब्धि आने पर प्रायोग्यलब्धि से गुजरता हुआ करणलब्धि को प्राप्त होता है, तदुपरांत सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करता है, सम्यक्त्वाचरणचारित्ररूप परिणमित होता है।
सम्यग्दर्शन प्राप्ति के पूर्व जो धारावाहिकज्ञान देशनाधारित था, आगमानुसार था, विकल्पात्मक था; सम्यग्दर्शन प्राप्ति के बाद वह अनुभवजन्य हो जाता है, साक्षात् हो जाता है, प्रत्यक्ष हो जाता है, सम्यक हो जाता है। यह सम्यग्ज्ञान आगे धारावाहीरूप से विद्यमान रहता है तो चारित्रमोह को