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________________ २७९ संवराधिकार कथं शुद्धात्मोपलंभादेव संवर इति चेत् - सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो। जाणतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहदि ।।१८६।। शुद्धं तु विजानन् शुद्धं चैवात्मानं लभते जीवः। __ जानंस्त्वशुद्धमशुद्धमेवात्मानं लभते ।।१८६।। यो हि नित्यमेवाच्छिन्नधारावाहिना ज्ञानेन शुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते सज्ञानमयात् भावात् ज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यग्रकर्मास्रवणनिमित्तस्य रागद्वेषमोहसंतानस्य निरोधाच्छुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति; यस्तु नित्यमेवाज्ञानेनाशुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते सोऽज्ञानमयाद्भावादज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यग्रकर्मास्रवणनिमित्तस्य रागद्वेषमोहसंतानस्यानिरोधादशुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति । अत:शुद्धात्मोपलंभादेव संवरः ।।१८६।। की उपलब्धि से संवर होता है। १८४-१८५वीं गाथाओं में इस बात को समझाया गया है कि भेदविज्ञान से शुद्धात्मा की उपलब्धि किसप्रकार होती है और अब इस १८६वीं गाथा में यह समझाया जा रहा है कि शुद्धात्मा की उपलब्धि से संवर किसप्रकार होता है। यही कारण है कि इस गाथा की उत्थानिका आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में जिस भाषा में प्रस्तुत करते हैं; उसका भाव इसप्रकार है - शुद्धात्मा की उपलब्धि से ही संवर किसप्रकार होता है ? - यदि ऐसा पूछे तो उसके उत्तर में कहा जाता है कि - ( हरिगीत ) जो जानता मैं शुद्ध हूँ वह शुद्धता को प्राप्त हो । जो जानता अविशुद्ध वह अविशुद्धता को प्राप्त हो ।।१८६।। शुद्धात्मा को जानता हुआ, अनुभव करता हुआ जीव शुद्धात्मा को ही प्राप्त करता है और अशुद्धात्मा को जानता हुआ, अनुभव करता हुआ जीव अशुद्धात्मा को ही प्राप्त करता है। इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जो अविछिन्नधारावाही ज्ञान से सदा शुद्धात्मा का अनुभव किया करता है; वह 'ज्ञानमय भाव से ज्ञानमय भाव ही होता है' - इस न्याय से आगामी कर्मों के आस्रवण की निमित्तभूत राग-द्वेष-मोह की संतति का निरोध होने से शुद्धात्मा को ही प्राप्त करता है और जो अज्ञान से सदा ही अशुद्धात्मा का अनुभव किया करता है; वह 'अज्ञानमय भाव से अज्ञानमय भाव ही होता है' - इस न्याय से आगामी कर्मों के आस्रवण की निमित्तभूत मोह-राग-द्वेष की संतति का निरोध न होने से अशुद्धात्मा को ही प्राप्त करता है। __ अत: यह सिद्ध हुआ कि शुद्धात्मा की उपलब्धि (अनुभव) से ही संवर होता है।" इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि जो जीव अपने आत्मा को परपदार्थों और उनके लक्ष्य से होनेवाले रागादि से भिन्न अनुभव करते हैं, उसे निज जानते-मानते हैं; उसी में अपनापन स्थापित कर जहाँ तक संभव हो, उसी में रमण करते हैं, उसी में लीन हो जाते हैं; वे जीव स्वयं
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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