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________________ २७८ समयसार इस टीका में आचार्य अमृतचन्द्र हमारा ध्यान इस महासत्य की ओर आकर्षित कर रहे हैं कि हजारों कारणों के एकत्रित हो जाने पर भी स्वभाव का नाश नहीं होता । यहाँ हजारों का आशय हजारों ही नहीं है; अपितु लाखों, करोड़ों, असंख्य, अनन्त है; क्योंकि ऐसा नहीं है कि हजारों कारण मिलने पर तो वस्तु अपने स्वभाव को न छोड़े; किन्तु यदि लाखों कारण मिल जायें तो छोड़ दे। अरे भाई ! वस्तु अपने स्वभाव को अनन्तों कारण मिलने पर भी नहीं छोड़ती - यहाँ यह बताना ही अभीष्ट है। अतः हजारों का अर्थ मात्र हजारों ही नहीं लेना; अपितु अनन्त लेना । तात्पर्य यह है कि किसी भी स्थिति में वस्तु अपने स्वभाव को नहीं छोड़ती । दूसरी बात यह है कि यहाँ द्रव्यस्वभाव की बात नहीं है, सम्यग्ज्ञानरूप परिणमित पर्याय की बात है। जिसको भेदविज्ञान हो गया, जिसने अपने आत्मा को पर-पदार्थों और रागादि विकारी भावों से भिन्न जान लिया; जिसने क्रोधादि भावकर्मों, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों और शरीरादि कर्मों से भिन्न और जाननक्रिया से अभिन्न अपने आत्मा को जान लिया, मान लिया; उस ज्ञानी आत्मा की बात यहाँ है । यहाँ ज्ञानस्वभावी आत्मा की नहीं; अपितु सम्यग्ज्ञानरूप परिणत आत्मा की बात है। ज्ञानी माने ज्ञानस्वभावी नहीं; अपितु ज्ञानी माने सम्यग्ज्ञानपरिणति से परिणत ज्ञानी - यह बात है यहाँ । 'हजारों कारण मिलने पर भी ज्ञानी अपने ज्ञानस्वभाव को नहीं छोड़ता' का आशय यह है कि वह पर को निज जानने-माननेरूप परिणमित नहीं होता । इसीप्रकार 'वह रागी, द्वेषी और मोही नहीं होता' का आशय भी यह है कि वह अनन्तानुबंधी राग-द्वेषरूप परिणमित नहीं होता, पर को निज माननेरूप मिथ्यात्व नामक मोहरूप परिणमित नहीं होता । यह बात चौथे गुणस्थानवाले ज्ञानी की अपेक्षा है । यदि हम पंचम गुणस्थानवाले ज्ञानी की अपेक्षा बात करें तो फिर वे अनन्तानुबंधी व अप्रत्याख्यानावरण राग-द्वेषरूप और मिथ्यात्वरूप परिणत नहीं होते • ऐसा अर्थ करना होगा । - इसीप्रकार छठे-सातवें गुणस्थानवाले मुनिराजों की अपेक्षा बात करें तो फिर वे अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण राग-द्वेषरूप और मिथ्यात्वरूप परिणमित नहीं होते ऐसा अर्थ करना होगा और यदि केवलज्ञानी की बात करें तो फिर यह कहा जा सकता है कि वे किसी भी प्रकार के राग-द्वेष-मोहरूप परिणमित नहीं होते । ज्ञानी जीव जिस भूमिका में हो, उसे उस भूमिका में नहीं होनेवाले राग-द्वेष- मोह नहीं होते यह अर्थ करना ही यहाँ शास्त्रसम्मत और युक्तिसंगत है । उक्त सम्पूर्ण कथन से यह बात एकदम स्पष्ट है कि भूमिका के योग्य चारित्रमोह संबंधी राग-द्वेष होने पर भी भूमिका के अयोग्य राग-द्वेष नहीं होते - इसी बात को यहाँ ज्ञानी के राग-द्वेष-मोह नहीं होते - इस भाषा में व्यक्त किया जाता है। यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है। यह बात पहले कही जा चुकी है कि भेदज्ञान से शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है और शुद्धात्मा -
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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