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संवराधिकार
यथा कनकमग्नितप्तमपि कनकभावं न तं परित्यजति । तथा कर्मोदयतप्तो न जहाति ज्ञानी तु ज्ञानित्वम् । । १८४ । । एवं जानाति ज्ञानी अज्ञानी मनुते रागमेवात्मानम् । अज्ञानतमोऽवच्छन्न: आत्मस्वभावमजानन् । । १८५ ।।
यतो यस्यैव यथोदितं भेदविज्ञानमस्ति स एव तत्सद्भावात् ज्ञानी सन्नेवं जानाति । यथा प्रचंडपावकप्रतप्तमपि सुवर्णं न सुवर्णत्वमपोहति तथा प्रचंडकर्मविपाकोपष्टब्धमपि ज्ञानं न ज्ञानत्वम - पोहति, कारणसहस्रेणापि स्वभावस्यापोढुमशक्यत्वात्; तदपोहे तन्मात्रस्य वस्तुन एवोच्छेदात् ।
न चास्ति वस्तूच्छेदः, सतो नाशासंभवात् । एवं जानंश्च कर्माकांतोऽपि न रज्यते न द्वेष्टि न मुह्यति, किंतु शुद्धमात्मानमेवोपलभते ।
यस्य तु यथोदितं भेदविज्ञानं नास्ति स तदभावादज्ञानी सन्नज्ञानतमसाच्छन्नतया चैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावमजानन् रागमेवात्मानं मन्यमानो रज्यते द्वेष्टि मुह्यति च, न जातु शुद्धमात्मानमुपलभते । ततो भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलंभः ।। १८४ - १८५ ।।
( हरिगीत )
ज्यों अग्नि से संतप्त सोना स्वर्णभाव नहीं तजे ।
त्यों कर्म से संतप्त ज्ञानी ज्ञानभाव नहीं तजे ।। १८४ ।।
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जानता यह ज्ञानि पर अज्ञानतम आछन्न जो वे आतमा जानें न मानें राग को ही आतमा ।। १८५ ।
जिसप्रकार सुवर्ण अग्नि से तप्त होता हुआ भी अपने सुवर्णत्व को नहीं छोड़ता; उसीप्रकार ज्ञानी कर्मोदय से तप्त होता हुआ भी ज्ञानीपने को नहीं छोड़ता - ज्ञानी ऐसा जानता है और अज्ञानी अज्ञानान्धकार से आच्छादित होने से आत्मा के स्वभाव को न जानता हुआ राग को ही आत्मा मानता है ।
आत्मख्याति में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट किया गया है
“जिसे उपर्युक्त भेदविज्ञान है, वह उस भेदविज्ञान के सद्भाव से ज्ञानी होता हुआ इसप्रकार जानता है कि जिसप्रकार प्रचण्ड अग्नि से तप्त होता हुआ भी सुवर्ण सुवर्णत्व को नहीं छोड़ता; उसीप्रकार प्रचण्ड कर्मोदय से घिरा हुआ होने पर भी ज्ञानी ज्ञानत्व को नहीं छोड़ता; क्योंकि हजारों कारणों के एकत्रित होने पर भी स्वभाव को छोड़ना अशक्य है । स्वभाव को छोड़ देने पर स्वभावमात्र वस्तु का ही उच्छेद हो जायेगा ।
चूँकि वस्तु का नाश होता नहीं; क्योंकि सत् का नाश होना असंभव है। ऐसा जानता हुआ ज्ञानी कर्मों से आक्रान्त होता हुआ भी रागी नहीं होता, द्वेषी नहीं होता और मोही नहीं होता; अपितु वह शुद्धात्मा का ही अनुभव करता है।
जिसे उपर्युक्त भेदविज्ञान नहीं है; वह उसके अभाव से अज्ञानी होता हुआ अज्ञानान्धकार से आच्छादित होने से चैतन्यचमत्कार मात्र आत्मस्वभाव को न जानता हुआ राग को ही आत्मा मानता हुआ रागी होता है, द्वेषी होता है और मोही होता है; किन्तु शुद्ध आत्मा का किंचित्मात्र भी अनुभव नहीं करता। इससे सिद्ध हुआ कि भेदविज्ञान से ही शुद्ध आत्मा की उपलब्धि होती है।"