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समयसार
एवमिदं भेदविज्ञानं यदा ज्ञानस्य वैपरीत्यकणिकामप्यनासादयदविचलितमवतिष्ठते तदा शुद्धोपयोगमयात्मत्वेन ज्ञानं ज्ञानमेव केवलं सन्न किंचनापि रागद्वेषमोहरूपं भावमारचयति ।
ततो भेदविज्ञानाच्छुद्धात्मोपलंभ: प्रभवति । शुद्धात्मोपलंभात् रागद्वेषमोहाभावलक्षणः संवरः प्रभवति ।। १८१ - १८३ ।।
कथं भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलंभ इति चेत् -
जह कणयमग्गितवियं पि कणयभावं ण तं परिच्चयदि ।
तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणित्तं ।। १८४ ।।
एवं जाणदि णाणी अण्णाणी मुणदि रागमेवादं । अण्णाणतमोच्छण्णो आदसहावं अयाणंतो ।। १८५ । ।
इस कलश में यह बताया जा रहा है कि ज्ञान और राग में अत्यधिक अन्तर है; क्योंकि ज्ञान चैतन्यस्वरूप है और राग जड़रूप है। उक्त तथ्य का अन्तर में मंथन करने से, उग्र अभ्यास करने से ज्ञान और राग की भिन्नता भली-भाँति ख्याल में आ जाती है और दृष्टि राग पर से हटकर ज्ञानस्वभाव पर स्थिर हो जाती है । यही भेदविज्ञान है। इसके अभ्यास से ही आत्मा, आत्मा में स्थिर होकर अतीन्द्रिय आनन्द प्राप्त करता है। सच्चा सुख प्राप्त करने का यही एकमात्र उपाय है।
आत्मख्याति टीका में कलश लगभग सर्वत्र ही गद्य-टीका के बाद ही आते हैं; किन्तु कुछ स्थल ऐसे भी हैं कि जहाँ टीका के बीच में भी कलश आ गये हैं। यह कलश भी उन्हीं में से एक है, जो टीका के बीच में आया है।
इस कलश के बाद जो टीका आई है, उसका भाव इसप्रकार है
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" इसप्रकार जब यह भेदविज्ञान ज्ञान को अणुमात्र भी रागादिरूप विपरीतता को प्राप्त न कराता हुआ अविचलरूप से रहता है, तब ज्ञान शुद्धोपयोगमयात्मकता के द्वारा ज्ञानरूप ही रहता हुआ किंचित्मात्र भी मोह-राग-द्वेषरूप भाव को नहीं करता। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि भेदविज्ञान से शुद्धात्मा की उपलब्धि (अनुभव) होती है और शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोहराग-द्वेषरूप आस्रवभाव का अभाव है लक्षण जिसका, ऐसा संवर होता है।"
टीका के इस अंश में मात्र यही कहा गया है कि स्वभाव और विभाव के बीच हुए भेदज्ञान से शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है, आत्मानुभूति होती है और शुद्धात्मा की उपलब्धि से, आत्मानुभूति से आस्रव का निरोध है लक्षण जिसका, ऐसा संवर होता है । अतः यह सहज ही सिद्ध हुआ कि संवर का मूलकारण भेदविज्ञान ही है ।
अब यहाँ यह प्रश्न होता है कि भेदविज्ञान से ही शुद्धात्मा की उपलब्धि (अनुभव) किसप्रकार होती है ? इसका उत्तर इन गाथाओं में दिया जा रहा है; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
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