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संवराधिकार ततो ज्ञानमेव ज्ञाने एव क्रोधादय एव क्रोधादिष्वेवेति साधु सिद्धं भेदविज्ञानम् ।
(शार्दूलविक्रीडित ) चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतो: कृत्वा विभागं द्वयोरन्तारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च । भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः
शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना संतो द्वितीयच्युताः ।।१२६।। इसलिए ज्ञान, ज्ञान में ही है और क्रोधादि क्रोधादि में ही हैं। इसप्रकार ज्ञान और क्रोधादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म व शरीरादि नोकर्म में भेदविज्ञान भली-भाँति सिद्ध हुआ।"
उक्त सम्पूर्ण कथन पर ध्यान देने पर एक बात स्पष्ट ही भासित होती है कि इन गाथाओं में उन्हीं बातों को संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया गया है, जिनकी चर्चा आचार्यदेव आरंभ से करते आ रहे हैं।
आत्मा से भिन्न जिन वस्तुओं को जीवाजीवाधिकार में २९ भेदों में विभाजित किया था; यहाँ उन सभी को भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म में विभाजित करके भेदविज्ञान कराया गया है।
ज्ञानक्रिया को कर्ताकर्माधिकार में भी स्वभावभूत बताकर अनिषिद्ध बताया था और यहाँ भी जाननक्रिया को ज्ञान से अभिन्न ही बताया गया है।
इन गाथाओं की टीका में जो प्रदेशभेद की चर्चा है, वह भी इस सामान्य नियम के अंतर्गत ही है कि एक वस्तु की दूसरी वस्तु नहीं होती; क्योंकि दो वस्तुओं के बीच प्रदेशभेद होता है। ___ कर्म, नोकर्म और भावकर्म को उपयोगस्वरूप आत्मवस्तु से भिन्न सिद्ध करते हुए सामान्यरूप से ही प्रदेशभिन्नत्व का हेत प्रस्तुत किया गया है।
इसप्रकार इन गाथाओं और उनकी टीका में - ज्ञानक्रिया से अभिन्न आत्मा और रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तथा शरीरादि नोकर्म के बीच सशक्त भेदविज्ञान कराकर अब भेदज्ञान से प्राप्त आत्मोपलब्धि प्राप्त होने पर मुदित होने की प्रेरणा आगामी कलश में देते हैं; जो इसप्रकार है
(हरिगीत ) यह ज्ञान है चिद्रूप किन्तु राग तो जड़रूप है। मैं ज्ञानमय आनन्दमय पर राग तो पररूप है।। इसतरह के अभ्यास से जब भेदज्ञान उदित हुआ।
आनन्दमय रसपान से तब मनोभाव मुदित हुआ।।१२६।। अंतरंग में चैतन्यस्वरूप को धारण करनेवाले ज्ञान और जड़रूपता को धारण करनेवाले राग - इन दोनों के दारुणविदारण द्वारा अर्थात् भेद करने के उग्र अभ्यास के द्वारा सभी ओर से विभाग करके यह निर्मल भेदज्ञान उदय को प्राप्त हुआ है; इसलिए अब हे सत्पुरुषो ! अन्य रागादि से रहित एक शुद्धविज्ञानघन के पुंज आत्मा में स्थित होकर मुदित होओ, प्रसन्न होओ।