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________________ २७४ समयसार न पुनः क्रोधादिषु कर्मणि नोकर्मणि वा ज्ञानमस्ति, न च ज्ञाने क्रोधादयः कर्म नोकर्म वा संति, परस्परमत्यंतं स्वरूपवैपरीत्येन परमार्थाधाराधेयसंबंधशून्यत्वात्।। न च यथा ज्ञानस्य जानत्ता स्वरूपं तथा क्रुध्यत्तादिरपि क्रोधादीनां च यथा क्रुध्यत्तादि स्वरूपं तथा जानत्तापि कथंचनापि व्यवस्थापयितुं शक्येत, जानत्तायाः क्रुध्यत्तादेश्च स्वभावभेदेनोद्भासमानत्वात् स्वभावभेदाच्च वस्तुभेद एवेति नास्ति ज्ञानाज्ञानयोराधाराधेयत्वम् । किंच यदा किलैकमेवाकाशं स्वबुद्धिमधिरोप्याधाराधेयभावो विभाव्यते तदा शेषद्रव्यांतराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति । तदप्रभवे चैकमाकाशमेवैकस्मिन्नाकाश एव प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति । ___एवं यदैकमेव ज्ञानं स्वबुद्धिमधिरोप्याधाराधेयभावो विभाव्यते तदा शेषद्रव्यान्तराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति । तदप्रभवे चैकं ज्ञानमेवैकस्मिन् ज्ञान एवं प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति । तात्पर्य यह है कि ज्ञान का स्वरूप जाननक्रिया है; इसलिए ज्ञान आधेय है और जाननक्रिया आधार है । जाननक्रिया आधार होने से यह सिद्ध हुआ कि ज्ञान ही आधार है; क्योंकि जाननक्रिया और ज्ञान भिन्न-भिन्न नहीं हैं। निष्कर्ष यह है कि ज्ञान, ज्ञान में ही है। इसीप्रकार क्रोधादि क्रोधादि में ही हैं - इसको भी घटित कर लेना चाहिए। क्रोधादि भावकर्मों में, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों में और शरीरादि नोकर्मों में ज्ञान नहीं है; क्योंकि ज्ञान में और उनमें परस्पर अत्यन्त स्वरूप विपरीतता होने से ज्ञान में और उनमें परस्पर आधार-आधेय संबंध नहीं है। जिसप्रकार ज्ञान का स्वरूप जाननक्रिया है, उसीप्रकार क्रोधादिक्रिया भी ज्ञान का स्वरूप हो; अथवा जिसप्रकार क्रोधादि का स्वरूप क्रोधादिक्रिया है, उसीप्रकार जाननक्रिया भी हो - ऐसा किसी भी विधि से स्थापित नहीं किया जा सकता; क्योंकि जाननक्रिया और क्रोधादिक्रिया भिन्न-भिन्न स्वभाव से प्रकाशित होती हैं। इसप्रकार स्वभावों के भिन्न-भिन्न होने से वस्तुएँ भिन्न-भिन्न ही हैं। इसप्रकार ज्ञान और अज्ञान (क्रोधादि) में आधार-आधेयत्व नहीं है। दूसरी बात यह है कि जब एक आकाश को ही अपनी बुद्धि में स्थापित करके उसके आधार-आधेयभाव का विचार किया जाता है तो आकाश को अन्य द्रव्यों में आरोपित करने का निरोध होने से, आकाश को अन्य द्रव्यों में स्थापित करना अशक्य होने से बुद्धि में अन्य आधार की अपेक्षा उत्पन्न ही नहीं होती; इसकारण यह भलीभाँति समझ लिया जाता है कि एक आकाश ही आकाश में प्रतिष्ठित है। ऐसा समझ लेने पर आकाश का पर के साथ आधारआधेयत्व भासित नहीं होता। इसीप्रकार जब एक ज्ञान को ही अपनी बुद्धि में स्थापित करके आधार-आधेयभाव का विचार किया जाये तो ज्ञान को अन्य द्रव्यों में आरोपित करने का निरोध होने से, ज्ञान को अन्य द्रव्यों में स्थापित करना अशक्य होने से बुद्धि में अन्य आधार की अपेक्षा उत्पन्न ही नहीं होती; इसकारण यह भलीभाँति समझ लिया जाता है कि एक ज्ञान ही ज्ञान में प्रतिष्ठित है। ऐसा समझ लेने पर ज्ञान का पर के साथ आधार-आधेयत्व भासित नहीं होता।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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