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संवराधिकार
२७३ उपयोगे उपयोगः क्रोधादिषु नास्ति कोऽप्युपयोगः । क्रोधः क्रोधे चैव हि उपयोगे नास्ति खलु क्रोधः ।।१८१।। अष्टविकल्पे कर्मणि नोकर्मणि चापि नास्त्युपयोगः। उपयोगे च कर्म नोकर्म चापि नो अस्ति ।।१८२।। एतत्त्वविपरीतं ज्ञानं यदा तु भवति जीवस्य ।
तदा न किंचित्करोति भावमुपयोगशुद्धात्मा ।।१८३।। न खल्वेकस्य द्वितीयमस्ति द्वयोर्भिन्नप्रदेशत्वेनैकसत्तानुपपत्तेः, तदसत्त्वे च तेन सहाधाराधेय. संबंधोऽपि नास्त्येव । ततः स्वरूपप्रतिष्ठत्वलक्षण एवाधाराधेयसंबंधोऽवतिष्ठते।
तेन ज्ञानं जानत्तायां स्वरूपे प्रतिष्ठितं, जानत्ताया ज्ञानादपृथग्भूतत्वात् ज्ञाने एव स्यात् । क्रोधादीनि क्रुध्यत्तादौ स्वरूपे प्रतिष्ठितानि, क्रुध्यत्तादेः क्रोधादिभ्योऽपृथग्भूतत्वात्क्रोधादिष्वेव स्युः।
उपयोग में उपयोग है, क्रोधादि में उपयोग नहीं है और क्रोध क्रोध में ही है, उपयोग में क्रोध नहीं है।
इसीप्रकार आठ प्रकार के कर्मों में और नोकर्म में भी उपयोग नहीं है और उपयोग में कर्म व नोकर्म नहीं हैं।
जब जीव को इसप्रकार का अविपरीत ज्ञान होता है, तब यह उपयोगस्वरूप शुद्धात्मा उपयोग के अतिरिक्त अन्य किसी भी भाव को नहीं करता।
इन गाथाओं में क्रोधादि भावकों, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों और शरीरादि नोकर्मों से उपयोग स्वरूप भगवान आत्मा को भिन्न बताया गया है और कहा गया है कि उपयोग स्वरूप भगवान आत्मा एकमात्र उपयोग का ही कर्ता-भोक्ता है। वह इन भावकों, द्रव्यकर्मों और नोकर्मों का कर्ता-भोक्ता नहीं। इसप्रकार का भेदज्ञान ही सम्पूर्ण कर्मों का संवर करने का उपाय है, कर्मबंध का निरोधक है।
ये गाथायें ही वे महत्त्वपूर्ण बहुचर्चित गाथायें हैं, जिनकी आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र उपयोगस्वरूप ज्ञान एवं क्रोधादि भावकर्मों, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों तथा शरीरादि नोकर्मों के बीच प्रदेशभेद की चर्चा करते हैं। इन गाथाओं का मर्म आत्मख्याति में इसप्रकार उद्घाटित किया गया है -
“वास्तव में एक वस्तु की दूसरी वस्तु नहीं है; क्योंकि दोनों के प्रदेश भिन्न-भिन्न होते हैं; इसलिए उनमें एक सत्ता की अनुपपत्ति है। जब एक वस्तु की दूसरी वस्तु है ही नहीं; तब उनमें परस्पर आधार-आधेय संबंध भी हो ही नहीं सकता; क्योंकि प्रत्येक वस्तु का अपने स्वरूप में प्रतिष्ठारूप (दृढ़तापूर्वक रहने रूप) ही आधार-आधेय संबंध होता है।
जाननक्रिया का ज्ञान से अभिन्नत्व होने से जाननक्रियारूप अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित वह ज्ञान, ज्ञान में ही है और क्रोधादि क्रिया का क्रोधादि से अभिन्नत्व होने के कारण क्रोधादि क्रियारूप अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित वे क्रोधादि क्रोधादिक में ही हैं।