________________
समयसार
२७२ तत्रादावेव सकलकर्मसंवरणस्य परमोपायं भेदविज्ञानमभिनंदति -
उवओगे उवओगो कोहादिसुणत्थि को वि उवओगो। कोहो कोहे चेव हि उवओगे णत्थि खलु कोहो ।।१८१।। अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो। उवओगम्हि य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि ।।१८२।। एवं दु अविवरीदं णाणं जइया दु होदि जीवस्स ।
तइया ण किंचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा ।।१८३।। अनादि संसार से अपने विरोधी संवर को जीतने से अत्यन्त मदोन्मत्त आस्रवभाव का तिरस्कार कर नित्यविजय प्राप्त करनेवाले संवर को उत्पन्न करती हुई ज्ञानज्योति स्फुरायमान हो रही है। निजरस के भार से भरित वह चिन्मय उज्वल ज्ञानज्योति परभावों से भिन्न अपने सम्यक् स्वरूप में निश्चलता से प्रसारित हो रही है, स्फुरायमान हो रही है।
इस अज्ञानी आत्मा पर अनादिकाल से आस्रव ही छाया हुआ है, संवर तो आजतक प्रगट ही नहीं हुआ। अपने जन्मजात विरोधी संवर को प्रगट नहीं होने देने के कारण आस्रवरूपी योद्धा अत्यन्त मदोन्मत्त हो रहा था। ऐसे आस्रवरूपी योद्धा को जड़मूल से बर्बाद कर नित्यविजय प्राप्त करनेवाले संवर को उत्पन्न करनेवाली ज्ञानज्योति के ही गीत यहाँ गाये गये हैं।
यहाँ 'नित्यविजय' शब्द का प्रयोग किया है; जिसका तात्पर्य यह है कि जिस मिथ्यात्वरूप आस्रवभाव का अभाव करता हुआ जो संवरभाव प्रगट हुआ है; उस संवरभाव का अब कभी भी अभाव नहीं होगा और उस मिथ्यात्वरूप आस्रवभाव का अब कभी भी उदय नहीं होगा।
निष्कर्ष यह है कि यह क्षायिक सम्यग्दर्शन की बात है या फिर जिस औपशमिक सम्यग्दर्शन से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर नियम से क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त होता है - उसकी बात है। ___ इसप्रकार हम देखते हैं कि मंगलाचरण के इस कलश में उस ज्ञानज्योति का स्मरण किया गया है कि जिसने अनादिकाल से संवर का उद्भव न होने देनेवाले आस्रवभाव का पराभव करके संवर का ऐसा उदय किया है कि जो कभी भी अस्त नहीं होगा। ___ अब इस संवर अधिकार की मूल गाथायें आरंभ करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र उत्थानिका में लिखते हैं कि अब कुन्दकुन्दाचार्यदेव सम्पूर्ण कर्मों का संवर करने का उत्कृष्ट उपाय जो भेदविज्ञान है, उसका अभिनन्दन करते हैं। उन मूल गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) उपयोग में उपयोग है क्रोधादि में उपयोग ना। बस क्रोध में है क्रोध पर उपयोग में है क्रोध ना ॥१८१।। अष्टविध द्रवकर्म में नोकर्म में उपयोग ना। इस ही तरह उपयोग में भी कर्म ना नोकर्म ना ।।१८२।। विपरीतता से रहित इस विधि जीव को जब ज्ञान हो। उपयोग के अतिरिक्त कुछ भी ना करे तब आतमा ।।१८३।।