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पूर्वरंग दात्मतत्त्वात्प्रच्युत्य परद्रव्यप्रत्ययमोहरागद्वेषादिभावैकत्वगतत्वेन वर्त्तते तदा पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितत्वात्परमेकत्वेन युगपजानन् गच्छंश्च परसमय इति प्रतीयते । एवं किल समयस्य द्वैविध्यमुद्धावति ॥२॥ तोड़कर परद्रव्य के निमित्त से उत्पन्न मोह-राग-द्वेषादि भावों में एकतारूप से लीन होकर प्रवृत्त होता है, तब पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित होने से युगपत् ही पर में एकाकार होकर जानता और परिणमता हुआ परसमय कहलाता है।
इसप्रकार इस समय (जीव) की स्वसमय और परसमय - यह द्विविधता (दोपना) प्रगट होती है।"
यहाँ समय का स्वरूप सात विशेषणों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। वह समय नामक जीव पदार्थ -
(१) उत्पाद-व्यय-ध्रुवयुक्त सत्ता सहित है। (२) ज्ञान-दर्शनस्वरूप चैतन्यस्वभावी है। (३) अनन्तधर्मात्मक एक अखण्ड द्रव्य है। (४) अक्रमवर्ती गुणों एवं क्रमवर्ती पर्यायों से युक्त है। (५) स्व-परप्रकाशक सामर्थ्य से युक्त होने से अनेकाकार होने पर भी एकरूप है। (६) अपने असाधारण चैतन्यस्वभाव के सद्भाव एवं परद्रव्यों के विशेष गुणों के अभाव के
कारण परद्रव्यों से भिन्न है। (७) परद्रव्यों से एक क्षेत्रावगाहरूप से अत्यन्त मिला हुआ होने पर भी अपने स्वरूप से च्युत
नहीं होने के कारण टंकोत्कीर्ण चित्स्वभावी है। यहाँ 'समय' शब्द का अर्थ परद्रव्यों और उनके गुण-पर्यायों से अत्यन्त भिन्न, ज्ञान-दर्शनस्वभावी, उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य से सहित, गुण-पर्यायवान, स्व-परप्रकाशक, अनन्तधर्मात्मक, टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावी जीवद्रव्य है।
यहाँ प्रमाण के विषयभूत जीवद्रव्य को लिया गया है; द्रव्यार्थिकनय के विषय या दृष्टि के विषयरूप जीवतत्त्व को नहीं। उसकी चर्चा तो छठवीं-सातवीं एवं चौदहवीं-पन्द्रहवीं गाथा में आयेगी।
यहाँ जो जीवद्रव्य के विशेषण दिये गये हैं, उनसे जैनदर्शन में मान्य जीव का स्वरूप स्पष्ट होता है और अन्य कथित मान्यताओं का निराकरण भी होता है।
स्वसमय और परसमय - ये दो भेद समय के हैं, समयसार के नहीं। तात्पर्य यह है कि गुणपर्यायवान जीवद्रव्य ही स्वसमय और परसमय में विभक्त होता है, विभाजित होता है; समयसाररूप शुद्धात्मा तो अविभक्त है, उसके तो कोई भेद होते ही नहीं हैं। स्वसमय और परसमय के भेद पर्याय की ओर से किये गये भेद ही हैं; अत: ये भेद पर्याय सहित आत्मा के ही हो सकते हैं।
निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है कि वास्तविक धर्मपरिणत आत्मा ही धर्मात्मा है, स्वसमय है और धर्मपरिणति से विहीन मोह-राग-द्वेषरूप परिणत आत्मा ही अधर्मात्मा है, परसमय है।
स्वसमय उपादेय है, परसमय हेय है, समय ज्ञेय है और समयसार ध्येय है। समयसाररूप ध्येय के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान से यह समय स्वसमय बनता है और समयसार के ज्ञान, श्रद्धान एवं ध्यान