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________________ समयसार अथैतद्बाध्यते - एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुन्दरो लोए। बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि ।।३।। एकत्वनिश्चयगत: समय: सर्वत्र सुन्दरो लोके। बंधकथैकत्वे तेन विसंवादिनी भवति ।।३।। समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते । समयत एकीभावेन स्वगुणपर्यायान् गच्छतीति निरुक्तेः । ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये यावंतः केचनांऽप्यऑस्ते सर्व एव स्वकीयद्रव्यांतर्मग्नानंतस्वधर्मचक्रचुम्बिनोऽपि परस्परमचुम्बंतोऽत्यंतप्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतंत: पररूपेणापरिणमनादविनष्टानंतव्यक्तित्वाट्टकोत्कीर्णा इव तिष्ठंत: समस्तविरुद्धाविरुद्धकार्यहेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगृह॒तो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव सौंदर्यमापद्यते, प्रकारांतरेण सर्वसंकरादिदोषापत्तेः।। के अभाव में मोह-राग-द्वेषरूप परिणत होकर परसमय बनता है। अत: समयसाररूप शुद्धात्मा को समझकर उसमें अपनापन स्थापित करना, उसका ही ध्यान करना परम कर्तव्य है। दूसरी गाथा में समय की द्विविधता बताई गई थी; पर यह द्विविधता शोभनीय नहीं है, शोभास्पद तो एकत्व ही है। इस बात को तीसरी गाथा में स्पष्ट करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) एकत्वनिश्चयगत समय सर्वत्र सुन्दर लोक में। विसंवाद है पर बंध की यह कथा ही एकत्व में ।।३।। एकत्वनिश्चय को प्राप्त जो समय है, वह लोक में सर्वत्र ही सुन्दर है। इसलिए एकत्व में दूसरे के साथ बंध की कथा विसंवाद पैदा करनेवाली है। प्रत्येक पदार्थ अपने में ही शोभा पाता है। पर के साथ बंध की कथा, मिलावट की बात विसंवाद पैदा करनेवाली है; अत: यदि विसंवाद से बचना है तो एकत्व को ही अपनाना श्रेयस्कर है। आत्मख्याति में इस गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत किया गया है - “यहाँ समय शब्द से सामान्यतः सभी पदार्थ कहे जाते हैं; क्योंकि जो एकीभाव से स्वयं के गुण-पर्यायों को प्राप्त हो, उसे समय कहते हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव; लोक के ये सभी पदार्थ समय शब्द से अभिहित किये जाते हैं और एकत्वनिश्चय को प्राप्त होने से सुन्दरता को पाते हैं। तात्पर्य यह है कि ये सब अकेले ही शोभास्पद होते हैं; क्योंकि अन्यप्रकार से उसमें सर्वसंकरादि दोष आ जायेंगे। वे सभी पदार्थ अपने-अपने द्रव्य में अन्तर्मग्न रहनेवाले अपने अनन्त धर्मों के चक्र को चुम्बन करते हैं, स्पर्श करते हैं; तथापि वे परस्पर एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते । अत्यन्त निकट एकक्षेत्रावगाहरूप से तिष्ठ रहे हैं; तथापि वे सदाकाल अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते हैं। पररूप परिणमन न करने से उनकी अनन्त व्यक्तिता नष्ट नहीं होती; इसलिए वे टंकोत्कीर्ण की भाँति सदा स्थित रहते हैं और समस्त विरुद्ध कार्य व अविरुद्ध कार्य की हेतुता से विश्व को सदा टिकाये रखते हैं, विश्व का उपकार करते हैं।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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