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________________ १० समयसार योऽयं नित्यमेव परिणामात्मनि स्वभावे अवतिष्ठमानत्वात् उत्पादव्ययध्रौव्यैक्यानुभूतिलक्षणया सत्तयानुस्यूतश्चैतन्यस्वरूपत्वान्नित्योदितविशददृशिज्ञप्तिज्योतिरनंतधर्माधिरूढेकधर्मित्वादुद्योतमानद्रव्यत्वः क्रमाक्रमप्रवृत्तविचित्रभावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्याय:स्वपराकारावभासनसमर्थत्वादुपात्तवैश्वरूप्यैकरूपः प्रतिविशिष्टावगाहगतिस्थितिवर्त्तनानिमित्तत्वरूपित्वाभावादसाधारणचिदुपतास्वभावसद्भावाच्चाकाशधर्माधर्मकालपदगलेभ्यो भिन्नोऽत्यंतमनंतद्रव्यसंकरेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनाट्टोत्कीर्णचित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः। समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्ते: अयं खलु यदा सकलभावस्वभावभासनसमर्थविद्यासमुत्पादकविवेकज्योतिरुद्गमनात्समस्तपरद्रव्यात्प्रच्युत्य दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपात्मतत्त्वैकत्वगतत्वेन वर्त्तते तदा दर्शनज्ञानचारित्रस्थितत्वात्स्वमेकत्वेन युगपज्जानन् गच्छंश्च स्वसमय इति। यदा त्वनाद्यविद्याकंदलीमूलकंदायमानमोहानुवृत्तितंत्रतया दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपा स्वभाव में स्थित जीव स्वसमय है और परभाव में स्थित जीव परसमय है। स्वसमय और परसमय दोनों अवस्थाओं में व्यापक प्रत्यगात्मा समय है। समय शब्द ‘सम्' उपसर्गपूर्वक 'अय्' धातु से बना है। 'अय्' का अर्थ गमन भी होता है और ज्ञान भी होता है। ‘सम्' का अर्थ 'एकसाथ होता है। इसप्रकार जिस वस्तु में एक ही काल में जानना और परिणमन करना - ये दोनों क्रियायें पाई जावें, वह ही समय है। चूँकि जीव प्रतिसमय जानता भी है और परिणमन भी करता है; अत: जीव नामक पदार्थ ही समय है। इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "वह समय नामक जीव पदार्थ परिणमनशील होने से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की एकतारूप अनुभूति लक्षणवाली सत्ता से युक्त है; चैतन्यस्वभावी होने से नित्य उद्योतरूप निर्मल दर्शनज्ञान ज्योतिस्वरूप है; अनन्तधर्मों के अधिष्ठातारूप एकधर्मी होने से जिसका द्रव्यत्व प्रगट है; क्रम और अक्रम से प्रवृत्त होनेवाले विचित्र स्वभाव को धारण करनेवाला होने से जो गुणपर्यायवाला है। स्व-पर के प्रकाशन में समर्थ होने से समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली एकरूपता प्राप्त की है जिसने; अन्यद्रव्यों के जो विशेष गुण हैं, ऐसे अवगाहनहेतुत्व, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व और रूपित्व के अभाव से एवं असाधारण चैतन्यरूप के सद्भाव से आकाश, धर्म, अधर्म, काल और पुद्गल - इन पाँचों द्रव्यों से जो अत्यन्त भिन्न है; वह जीव नामक पदार्थ अनन्त अन्यद्रव्यों से अत्यन्त एकक्षेत्रावगाहरूप से संबंधित होने पर भी अपने स्वरूप से न छूटने के कारण टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप है। ऐसा जीव नामक पदार्थ ही समय है। जब यह समय (जीव) सब पदार्थों का प्रकाशन करने में समर्थ केवलज्ञान को उत्पन्न करनेवाली भेदविज्ञानज्योति के उदय होने से सभी परद्रव्यों से अपनापन तोड़कर, अपने दर्शनज्ञानस्वभाव में है नियतवृत्ति जिसकी, ऐसे आत्मतत्त्व में एकाकार होकर प्रवृत्ति करता है; तब दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित होने से अपने स्वरूप को एकत्वरूप से एक ही समय में जानता तथा परिणमता हुआ स्वसमय कहलाता है। जब यह समय (जीव) अनादि अविद्यारूपी केले के मूल की गाँठ के समान परिपुष्ट मोह के उदयानुसार प्रवृत्ति की अधीनता से दर्शन-ज्ञानस्वभाव में नियतवृत्तिरूप आत्मतत्त्व से अपनापन
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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