SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्वरंग तत्र तावत्समय एवाभिधीयते - जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो तं हि ससमयं जाण । पोग्गलकम्मपदेसट्टिदं च तं जाण परसमयं ।।२।। जीव: चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः तं हि स्वसमयं जानीहि।। पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं च तं जानीहि परसमयम् ।।२।। 'सिद्ध-समान सदा पद मेरो' की सूक्ति के अनुसार सभी आत्मा सिद्ध-समान तो हैं ही और प्रत्येक आत्मार्थी का अन्तिम साध्य भी सिद्धदशा ही है। यही कारण है कि इस परम मंगलमय प्रसंग पर वे अपने और पाठकों के आत्मा में सिद्धत्व की स्थापना करके इस महान कार्य का आरम्भ करते हैं। आचार्यदेव कहते हैं कि मैं अपनी ओर से कुछ भी कहनेवाला नहीं हैं। इस समयसार में मैं जो कुछ भी कहूँगा, वह सब वस्तुस्वरूप के अनुरूप तो होगा ही; सर्वज्ञ परमात्मा की दिव्यध्वनि के अनुसार भी होगा, गणधरदेव रचित द्वादशांग के अनुसार भी होगा तथा शुद्धात्मा और सम्पूर्ण पदार्थों के सही स्वरूप को प्रकाशित करनेवाला ही होगा। यह काम मैं स्व-पर के कल्याण के लिए ही कर रहा हूँ। वह स्व-पर का कल्याण भी कोई लौकिक प्रयोजन की सिद्धि करनेवाला नहीं है अर्थात् अनादिकालीन मोह के नाश के लिए ही यह उपक्रम है। आचार्य अमृतचन्द्र ने मंगलाचरण के तीसरे छन्द में इस ग्रन्थ की टीका करने से अपने चित्त की परमविशुद्धि की कामना ही की है। वही बात वे यहाँ टीका में आचार्य कुन्दकुन्द की ओर से कह रहे हैं। ___ भाई ! देखो तो आचार्यदेव कह रहे हैं कि यह शास्त्र अरहंत भगवान के प्रवचनों का अवयव है, भगवान की दिव्यध्वनि का अंश है। यह कोई साधारण पुस्तक नहीं है, यह तो केवली भगवान की वाणी का अवयव है, अंश है। अत: इसे केवली भगवान की वाणी के समान आदर देकर ही पढ़ना चाहिए। जब ऐसा करोगे, तभी इसके स्वाध्याय से पूरा लाभ प्राप्त होगा। इसप्रकार इस पहली गाथा में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ध्रुव, अचल, अमल और अनुपम गति को प्राप्त सर्वसिद्धों की वंदना कर केवली और श्रुतकेवलियों द्वारा कथित समयसार नामक ग्रन्थ को लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं। प्रथम गाथा में समयप्राभृत कहने की प्रतिज्ञा की गई है, समयसार लिखने की प्रतिज्ञा की गई है। अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि समय क्या है ? इसलिए अब आचार्यदेव सर्वप्रथम समय का स्वरूप ही स्पष्ट करते हैं - (हरिगीत ) सद्ज्ञानदर्शनचरित परिणत जीव ही हैं स्वसमय । जो कर्मपुद्गल के प्रदेशों में रहें वे परसमय ।।२।। जो जीव दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र में स्थित हैं; उन्हें स्वसमय जानो और जो जीव पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित हैं; उन्हें परसमय जानो।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy