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समयसार सदा एकरूप नहीं रहती, किन्तु एक-सी रहती है। स्वभाव की ध्रुवता ‘एकरूप' रहना है और पर्याय की ध्रुवता एक-सी रहना है। यहाँ पर्याय की ध्रुवता की बात है।
त्रिकाली ध्रुव ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा को अनुभूतिपूर्वक जानना, निज जानना और उसमें ही अपनापन स्थापित होना, उसका ही ध्यान करना, उसमें ही लीन हो जाना ही ध्रुवस्वभाव का अवलम्बन है, आश्रय है। इसप्रकार के अवलम्बन से ही ध्रुवपर्याय प्रगट होती है, सिद्धदशा प्रगट होती है।
अनादिकाल से इस आत्मा ने निज भगवान आत्मा को तो कभी जाना ही नहीं; मात्र परपदार्थों, उनके भावों और उनके निमित्त से अपने आत्मा में उत्पन्न होनेवाली विकारी पर्यायों को ही जाना-माना है, उनमें ही अपनापन स्थापित किया है और उनका ही ध्यान किया है तथा यह आत्मा उनमें ही रचा-पचा रहा है।
बस, यही पर का अवलम्बन है, पर का आश्रय है और इससे ही अनन्त दु:ख है। पंचमगति में पर का अवलम्बन छूट गया है, एकमात्र त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा का अवलम्बन रह गया है; यही कारण है कि सिद्धदशा सुखमयदशा है, शान्तिमयदशा है, ध्रुवदशा है।
अनादिकाल से यह भगवान आत्मा चार गति और चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है। परभावों के निमित्त से होनेवाले इस परिभ्रमण के रुक जाने से पंचमगति अचलता को प्राप्त हो गई है।
चारों ही गतियाँ दु:खमय हैं और यह पंचमगति सुखमय है। जगत में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है कि जिससे इसकी उपमा दी जा सके; क्योंकि जगत में जितने भी पदार्थ उपमा देने योग्य हैं, यह पंचमगति उन सबसे विलक्षण है, अद्भुत महिमावाली है; इसीकारण इसे अनुपम कहा गया है। - ध्रुव विशेषण से विनाशीकपने का, अचल विशेषण से परिभ्रमण का एवं अनुपम विशेषण से चारों गतियों में पाई जानेवाली कथंचित् समानता का निषेध - व्यवच्छेद इस पंचमगति में हो गया।
आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में अचल के स्थान पर पाठान्तर के रूप में अमल पद भी दिया है और अचल पद के साथ-साथ अमल पद की भी व्याख्या दी है, जो इसप्रकार है -
“भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्मरूपी मल से रहित एवं शद्धभाव सहित होने से पंचमगति अमल है।"
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - इन चार पुरुषार्थों में से धर्म, अर्थ और काम - इनको त्रिवर्ग कहते हैं। इन तीनों से भिन्न होने से, विलक्षण होने से मोक्ष को अपवर्ग कहते हैं। इस अविनाशी, अविचल, अमल, अनुपम और अपवर्ग गति को प्राप्त सभी सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार कर आचार्य कुन्दकुन्ददेव इस समयप्राभृत शास्त्र को रचने की प्रतिज्ञा करते हैं।
यहाँ उन्हीं सिद्ध भगवान को द्रव्य व भावस्तुति के माध्यम से स्वयं के व पाठकों के आत्मा में स्थापित करके इस समयसार ग्रन्थ को लिखने की प्रतिज्ञा की गई है।
सभी मुनिराज प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में आत्मा का अनुभव करते हैं, शुद्धोपयोग में जाते हैं। उनका यह शुद्धोपयोग ही भावस्तुति है और इस गाथा में जो शब्दों से नमस्कार किया गया है, वह द्रव्यस्तुति है।