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________________ पूर्वरंग अथ प्रथमत एव स्वभावभावभूततया ध्रुवत्वमवलंबमानामनादिभावांतरपरपरिवत्तिविश्रांतिवशेनाचलत्वमुपगतामखिलोपमानविलक्षणाद्भुतमाहात्म्यत्वेनाविद्यमानौपम्यामपवर्गसंज्ञिको गतिमापन्नान् भगवतः सर्वसिद्धान् सिद्धत्वेन साध्यस्यात्मनः प्रतिच्छंदस्थानीयान् भावद्रव्यस्तवाभ्यां स्वात्मनि परात्मनि च निधायानादिनिधनश्रुतप्रकाशितत्वेन निखिलार्थसार्थसाक्षात्कारिकेवलिप्रणीतत्वेन श्रतकेवलिभिः स्वयमनभवद्भिरभिहितत्वेन च प्रमाणतामुपगतस्यास्य समयप्रकाशकस्य प्राभृताह्वयस्याहत्प्रवचनावयवस्य स्वपरयोरनादिमोहप्रहाणाय भाववाचा द्रव्यवाचा च परिभाषणमुपक्रम्यते ॥१॥ इस गाथा में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ध्रुव, अचल और अनुपम गति को प्राप्त सर्वसिद्धों को नमस्कार करके श्रुतकेवलियों द्वारा कथित समयसार नामक ग्रंथाधिराज बनाने की प्रतिज्ञा करते हैं। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त करते हैं - “यह पंचमगति (सिद्धदशा) स्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न हुई होने से ध्रुव है, अनादिकालीन परिभ्रमण का अभाव हो जाने से अचल है और उपमा देने योग्य जगत के सम्पूर्ण पदार्थों से विलक्षण होने एवं अद्भुत महिमा की धारक होने से अनुपम है। धर्म, अर्थ और काम - इस त्रिवर्ग से भिन्न होने के कारण अपवर्ग है नाम जिसका, ऐसी पंचमगति को प्राप्त सर्वसिद्धों को; जो मेरे आत्मा की साध्यदशा के स्थान पर हैं अर्थात् जैसा मुझे बनना है, जो मेरा आदर्श है, उसके स्थान पर हैं; उन सर्वसिद्धों को भावस्तुति और द्रव्यस्तुति के माध्यम से अपने और पर के आत्मा में स्थापित करके; सर्वपदार्थों को साक्षात् जाननेवाले केवलियों द्वारा प्रणीत, अनादिनिधन श्रुत द्वारा प्रकाशित, स्वयं अनुभव करनेवाले श्रुतकेवलियों द्वारा कथित होने से प्रमाणता को प्राप्त; सर्वपदार्थों या शुद्धात्मा का प्रकाशक एवं अरहन्त भगवान के प्रवचनों का अवयव है जो - ऐसे इस समयसार नामक ग्रन्थ का अपने और पराये अनादिकालीन मोह के नाश के लिए भाववचन और द्रव्यवचन के माध्यम से परिभाषण आरम्भ किया जाता है।" चारों ही गतियाँ पर-पदार्थों के अवलम्बन से उत्पन्न होती हैं, इसकारण अध्रुव हैं, विनाशीक हैं; पर पंचमगति सिद्धदशा स्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न होती है; अत: ध्रुव है, अविनाशी है, सदा एक-सी रहनेवाली है। यद्यपि परिवर्तन तो सिद्धदशा में भी होता है, पर वह परिवर्तन सदा एक-सा ही होता है, सुखरूप ही होता है; इसकारण इसे ध्रुव कहा है। सदा एकरूप ही रहनेवाले ध्रुवस्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न होने के कारण सिद्धदशा सदा एक-से आनन्दरूप ही रहती है, शान्तिरूप ही रहती है। पर अनेक रूप धारण करनेवाले परपदार्थों के आश्रय से उत्पन्न होने के कारण चारों गतियों रूप संसारदशा सांसारिक दुःख-सुखरूप होती रहती है, बदलती रहती है। सांसारिक सुख भी दुःखरूप ही है तथा दु:खों का रूप भी बदलता रहता है। इसकारण संसारदशा अध्रुव है, चारों गतियाँ अध्रुव हैं। ध्रवस्वभाव अलग है और ध्रवस्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न होनेवाली ध्रवपर्याय अलग है। ध्रुवस्वभाव तो सदा एकरूप ही रहता है; परन्तु ध्रुवस्वभाव के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली ध्रुवपर्याय
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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