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समयसार
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धीर और उदार महिमावाले अनादिनिधन ज्ञान में स्थिरता करता हुआ समस्त कर्मों के समूह को नष्ट करनेवाला शुद्धनय धर्मात्मा ज्ञानी पुरुषों द्वारा कभी भी छोड़ने योग्य नहीं है; क्योंकि शुद्धनय में स्थित पुरुष बाहर निकलती हुई अपनी ज्ञानकिरणों के समूह को अल्पकाल में ही समेटकर पूर्ण ज्ञानघन के पुंजरूप, एक अचल शान्त तेजपुंज को देखते हैं, अनुभव करते हैं।
(मन्दाक्रान्ता) रागादीनां झगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्रवाणां नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु संपश्यतोऽन्तः । स्फारस्फारैः स्वरसविसरैः प्लावयत्सर्वभावा
नालोकांतादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत् ।।१२४।। इति आस्रवो निष्क्रांतः।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ आस्रवप्ररूपकः चतुर्थोऽङ्कः।
इसप्रकार इस कलश में भी यही कहा गया है कि शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा का आश्रय करनेवाला शुद्धनय किसी भी स्थिति में छोड़ने योग्य नहीं है; क्योंकि उसके विषयभूत भगवान आत्मा के आश्रय से अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है, केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, सिद्धदशा की प्राप्ति होती है। ___ इसप्रकार शुद्धनय की महिमा बताकर, उसे ग्रहण करने की प्रेरणा देकर, उसे नहीं छोड़ने की चेतावनी देकर; अब आचार्य अमृतचन्द्र आस्रव अधिकार के अन्त में आस्रव का अभाव करके प्रगट होनेवाले ज्ञान की महिमा का सचक कलश काव्य लिखते हैं: जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत निज आतमा जो परमवस्तु उसे जो पहिचानते । अर उसी में जो नित रमें अर उसे ही जो जानते ।। वे आस्रवों का नाश कर नित रहें आतमध्यान में।
वे रहें निज में किन्तु लोकालोक उनके ज्ञान में ॥१२४।। सदा ही उदित परमात्मवस्तु को अंतरंग में देखनेवाले पुरुष को रागादि आस्रवभावों का शीघ्र ही सर्वप्रकार से नाश होने से सर्व लोकालोक को जाननेवाला अनन्तानन्त विस्तार को प्राप्त ज्ञान सदा अचल रहता है, प्रगट होने के बाद ज्यों का त्यों बना रहता है, चलायमान नहीं होता। उसके समान अन्य कोई न होने से वह ज्ञान अतुल कहा जाता है। इस अधिकार को समाप्त करते हुए आत्मख्यातिकार अन्तिम वाक्य के रूप में लिखते हैं - "इसप्रकार आस्रव रंगभूमि से बाहर निकल गया।" इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका में आस्रव का प्ररूपक चौथा अंक समाप्त हुआ।