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________________ २६९ आस्रवाधिकार पुरुष द्वारा किये गये आहार के उदाहरण के माध्यम से यहाँ यह बताया गया है कि जिसप्रकार गृहीत आहार को जठराग्नि ही खून-मांसादि रूप परिणमित करती है; उसीप्रकार पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय (पूर्वकाल में बाँधे गये द्रव्यकर्म) ही कार्मणवर्गणाओं को ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमित करते हैं। यहाँ पर शुद्धनय से च्युत होने का अर्थ ज्ञानी धर्मात्मा का शुद्धोपयोग से शुभोपयोग में आ जाना (अनुष्टुभ् ) इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि । नास्ति बंधस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्ध एव हि ।।१२२।। (शार्दूलविक्रीडित ) धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन्धृति त्याज्य: शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वंकष: कर्मणाम् । तत्रस्था: स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्बहिः पूर्ण ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यंति शांतं महः ।।१२३।। मात्र नहीं है; अपितु शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा की श्रद्धा से च्युत हो जाना है, मिथ्यात्व की भूमिका में आ जाना है। आगामी कलश में भी इसी भाव का पोषण किया गया है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) इस कथन का सार यह कि शुद्धनय उपादेय है। अर शुद्धनय द्वारा निरूपित आत्मा ही ध्येय है।। क्योंकि इसके त्याग से ही बंध और अशान्ति है। इसके ग्रहण में आत्मा की मुक्ति एवं शान्ति है ।।१२२।। उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है; क्योंकि उसके त्याग से बंध होता है और उसके अत्याग से बंध नहीं होता। इस कलश में न केवल इस प्रकरण का निचोड़ दिया गया है, अपितु सम्पूर्ण समयसार का निचोड़ दिया गया है। अरे भाई ! यह बात अकेले समयसार के निचोड़ की ही बात नहीं है; सम्पूर्ण जिनागम का निचोड़ भी यही है, भगवान की दिव्यध्वनि का सार भी यही है। अब इसी बात को दृढ़ता प्रदान करनेवाला कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) धीर और उदार महिमायुत अनादि-अनंत जो। उस ज्ञान में थिरता करे अर कर्मनाशक भाव जो।। सदज्ञानियों को कभी भी वह शुद्धनय ना हेय है। विज्ञानघन इक अचल आतम ज्ञानियों का ज्ञेय है।।१२३।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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