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समयसार
२६८ सम्यग्दृष्टि और जो अभी सम्यग्दृष्टि है, वह क्षण में मिथ्यादृष्टि हो सकता है।
इसीप्रकार के प्रश्न उपस्थित होने पर आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी ने भी कहा था कि अरे भाई ! पर्याय तो क्षण-क्षण में बदलती रहती है।
जह पुरिसेणाहारो गहिदो परिणमदि सो अणेयविहं । मंसवसारुहिरादी भावे उदरग्गिसंजुत्तो ।।१७९।। तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं । बझंते कम्मं ते णयपरिहीणा दु ते जीवा ।।१८०।।
यथा पुरुषेणाहारो गृहीतः परिणमति सोऽनेकविधम् । मांसवसारुधिरादीन् भावान् उदराग्निसंयुक्तः ।।१७९।। तथा ज्ञानिनस्तु पूर्वं ये बद्धाः प्रत्यया बहुविकल्पम् ।
बध्नति कर्म ते नयपरिहीनास्तु ते जीवाः।।१८०।। यदा तु शुद्धनयात् परिहीणो भवति ज्ञानी तदा तस्य रागादिसद्भावात् पूर्वबद्धाः द्रव्यप्रत्ययाः स्वस्य हेतुत्वहेतुसद्भावे हेतुमद्भावस्यानिवार्यत्वात् ज्ञानावरणादिभावै: पुद्गलकर्म बंधं परिणमयंति।
न चैतदप्रसिद्धं, पुरुषगृहीताहारस्योदराग्निना रसरुधिरमांसादिभावैः परिणामकरणस्य दर्शनात् ।।१७९-१८०॥
अब इसी बात को गाथाओं में उदाहरण से समझाते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) जगजन ग्रसित आहार ज्यों जठराग्नि के संयोग से। परिणमित होता वसा में मज्जा रुधिर मांसादि में ।।१७९।। शुद्धनय परिहीन ज्ञानी के बँधे जो पूर्व में।
वे कर्म प्रत्यय ही जगत में बाँधते हैं कर्म को।।१८०।। जिसप्रकार पुरुष के द्वारा ग्रहण किया हुआ आहार जठराग्नि के संयोग से अनेकप्रकार मांस, चर्बी, रुधिर आदि रूप परिणमित होता है; उसीप्रकार शुद्धनय से च्युत ज्ञानी जीवों के पूर्वबद्ध द्रव्यास्रव अनेकप्रकार के कर्म बाँधते हैं।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“जब ज्ञानी जीव शुद्धनय से च्युत होता है, तब उसके रागादिभावों का सद्भाव होने से पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय अपने (द्रव्यप्रत्ययों के) कर्मबंध के हेतुत्व के हेतु का सद्भाव होने पर हेतुमान भाव (कार्य) का अनिवार्यत्व होने से ज्ञानावरणादि भाव से पुद्गलकर्म को बंधरूप परिणमित करते हैं और यह बात अप्रसिद्ध भी नहीं है; क्योंकि मनुष्य के द्वारा ग्रहण किये गये आहार को जठराग्नि रस, रुधिर, मांस इत्यादि रूप में परिणमित करती देखी जाती है।"