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________________ आस्रवाधिकार २६७ इन दोनों कलशों का सार यह है कि शुद्धनय के विषयभूत शुद्धात्मा का आश्रय करनेवाले कर्मबंधनों से मुक्त हो जाते हैं और शुद्धनय के विषयभूत आत्मा को न जाननेवाले लोग विविध प्रकार के कर्म बंधनों से बँधते हैं। यह १२१वाँ छन्द वह छन्द है; जिसके भावानुवाद में कविवर बनारसीदासजी ने यह लिखा है कि क्षयोपशम सम्यग्दर्शन तो एक दिन में भी अनेक बार हो सकता है और छूट सकता है। कविवर बनारसीदासजी कृत भावानुवाद इसप्रकार है - (सवैया इकतीसा) जेते जीव पंडित खयोपसमी उपसमी, तिन्ह की अवस्था ज्यौं लुहार की संडासी है। खिन आगमाहिं खिन पानीमाहिं तैसैं एऊ, खिन में मिथ्यात खिन ग्यानकला भासी है।। जौलैं ग्यान रहै तौलौं सिथिल चरन मोह, जैसैं कीले नाग की सकति गति नासी है। आवत मिथ्यात तब नानारूप बंध करें, ___ ज्यौं उकीले नाग की सकति परगासी है।। जितने जीव औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि पंडित हैं; उनकी अवस्था (दशा) तो लुहार की संडासी (संसी) के समान होती है। जिसप्रकार लुहार की संडासी एक क्षण में अग्नि में होती है तो दूसरे क्षण में पानी में होती है; उसीप्रकार औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव भी प्रथम क्षण में मिथ्यादृष्टि हैं तो दूसरे क्षण में सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं तथा फिर तीसरे क्षण मिथ्यादृष्टि हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार लुहार की संडासी क्षण-क्षण में गर्म-ठंडी, ठंडी-गर्म होती रहती है; उसीप्रकार औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि, सम्यग्दृष्टि से मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि होते रहते हैं। जिसप्रकार नाग (सर्प) को मंत्रशक्ति द्वारा कीलित कर देने पर, कील देने पर; उसकी शक्ति नष्ट हो जाती है और गति (चलना-फिरना) रुक जाती है; किन्तु जब उसी कीलित नाग को उकील देते हैं तो शक्ति प्रकाशित हो जाती है और वह गति (चलना-फिरना) करने लगता है; उसीप्रकार जबतक सम्यग्ज्ञान रहता है, तबतक चारित्रमोह भी शिथिल रहता है; किन्तु जब वही ज्ञानी जीव मिथ्यात्वदशा में आ जाता है, तब अनेकप्रकार के कर्मों का बंध करने लगता है। यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि इस पंचमकाल में यहाँ भरत क्षेत्र में क्षायिक सम्यग्दृष्टि तो कोई होता नहीं और औपशमिक सम्यग्दर्शन और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन क्षणस्थाई भी होते हैं। ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति इस जीवन में अनेकों बार मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि और सम्यग्दृष्टि से मिथ्यादृष्टि हो सकता है। क्योंकि औपशमिक व क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, देशव्रत और अनन्तानुबंधी की विसंयोजना - ये चारों असंख्य बार होते हैं और छूट जाते हैं। ___ अत: विचारने की बात यह है कि अपने क्षायोपशमिक ज्ञान के आधार पर किसी को सम्यग्दृष्टि और किसी को मिथ्यादृष्टि घोषित करने में क्या दम है; क्योंकि जो अभी मिथ्यादृष्टि है, वह क्षण में
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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