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समयसार
२६६ बनते; क्योंकि द्रव्यप्रत्ययों के पुद्गलकर्म के हेतुत्व के हेतु के अभाव में हेतुमान का अभाव प्रसिद्ध है। तात्पर्य यह है कि कारण के कारण के अभाव में कार्य का अभाव होता ही है। अतः ज्ञानी के बंध नहीं है।"
(वसन्ततिलका) अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधचिह्नमैकाग्रयमेव कलयंति सदैव ये ते। रागादिमुक्तमनसः सततं भवंत: पश्यंति बंधविधुरं समयस्य सारम् ।।१२०।। प्रच्युत्य शुद्धनयत: पुनरेव ये तु रागादियोगमुपयांति विमुक्तबोधाता ते कर्मबन्धमिह बिभ्रति पूर्वबद्ध
द्रव्यास्रवैः कृतविचित्रविकल्पजालम् ।।१२१।। ध्यान रहे, यहाँ जो सम्यग्दृष्टियों के मोह-राग-द्वेष का अभाव बताया गया है; उसमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ ही लेना चाहिए; क्योंकि सम्यग्दृष्टियों के इनका ही अभाव होता है।
अब शुद्धनय की महिमा बतानेवाले इन १२०-१२१वें कलशों में से प्रथम में शुद्धनय के आश्रय के लाभ से और दूसरे में शुद्धनय से च्युत होने से होनेवाली हानि से परिचित कराते हैं। दोनों कलशों का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) सदा उद्धत चिह्न वाले शुद्धनय अभ्यास से। निज आत्म की एकाग्रता के ही सतत् अभ्यास से।। रागादि विरहित चित्तवाले आत्मकेन्द्रित ज्ञानिजन। बंधविरहित अर अखण्डित आत्मा को देखते ।।१२०।। च्युत हुए जो शुद्धनय से बोध विरहित जीव वे। पहले बँधे द्रव्यकर्म से रागादि में उपयुक्त हो।। अरे विचित्र विकल्पवाले और विविध प्रकार के।
विपरीतता से भरे विध-विध कर्म का बंधन करें ।।१२१।। उद्धत ज्ञान है चिह्न जिसका, ऐसे शुद्धनय का आश्रय लेकर जो जीव सदा ही एकाग्रता का अभ्यास करते हैं; वे निरन्तर रागादि से मुक्त चित्तवाले ज्ञानीजन बंध से रहित समय के सार को, शुद्धात्मा को देखते हैं, अनुभव करते हैं।
तथा इस जगत में जो जीव शुद्धनय से च्युत होकर रागादि के संबंध को प्राप्त होते हैं; आत्मज्ञान से रहित वे जीव पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवों के द्वारा अनेकप्रकार के कर्मों को बाँधते हैं।