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________________ २६१ आस्रवाधिकार परवृत्ति को छोड़ दिया है और वह अस्थिरतारूप परवृत्ति को जीतने के लिए निजशक्ति को बारंबार (अनुष्टुभ् ) सर्वस्यामेव जीवंत्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ । कुतो निराम्रो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः ।।११७।। स्पर्श करता है अर्थात् परिणति को स्वरूप के प्रति बारंबार उन्मुख किया करता है। इसप्रकार सकल परवृत्ति को उखाड़ करके केवलज्ञान प्रगट करता है। ___'बुद्धिपूर्वक' और 'अबुद्धिपूर्वक' का अर्थ इसप्रकार है - जो रागादि परिणाम इच्छासहित होते हैं, वे बुद्धिपूर्वक हैं और जो इच्छारहित परनिमित्त की बलवत्ता से होते हैं, वे अबुद्धिपूर्वक हैं। ज्ञानी के जो रागादि परिणाम होते हैं, वे सभी अबुद्धिपूर्वक ही हैं। सविकल्पदशा में होनेवाले रागादि परिणाम ज्ञानी को ज्ञात तो हैं; तथापि वे अबुद्धिपूर्वक हैं, क्योंकि वे बिना इच्छा के ही होते हैं।" इसप्रकार इस कलश में यह कहा गया है कि ज्ञानी आत्मा ने बुद्धिपूर्वक होनेवाले रागादि को तो छोड़ ही दिया है और अबुद्धिपूर्वक होनेवाले रागादिभावों के त्याग के लिए वह बारंबार आत्मा का स्पर्श करता है, आत्मानुभव करता है। इसप्रकार वह पूर्णत: निरास्रव होने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है तथा उसका यह प्रयास यथासमय सफल भी होता है। यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि रागादिभावों का अभाव आत्मा के स्पर्श से होता है, आत्मानुभव से होता है। अत: आत्मा के कल्याण का मार्ग एकमात्र आत्मानुभव ही है। आत्मानुभव ही सच्चा धर्म है। अब आगामी चार गाथाओं की उत्थानिकारूप कलशकाव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (दोहा) द्रव्यास्रव की संतति, विद्यमान सम्पूर्ण । फिर भी ज्ञानी निराम्रव, कैसे हो परिपूर्ण ।।११७।। ज्ञानी के समस्त द्रव्यास्रवों की संतति विद्यमान होने पर भी यह क्यों कहा गया है कि ज्ञानी सदा ही निरास्रव है - यदि तेरी यह मति (आशंका) है तो अब उसका उत्तर कहा जाता है। ___ इस कलश का भाव एकदम सीधा-सादा है कि जब द्रव्यास्रवों की सम्पूर्ण संतति विद्यमान है तो फिर ज्ञानी को निरास्रव कैसे कहा जा सकता है ? यद्यपि इस कलश में मात्र प्रश्न ही खड़ा किया गया है, आशंका ही प्रस्तुत की गई है; तथापि इस प्रश्न के समर्थन में, इस आशंका के समर्थन में समर्थ तर्क प्रस्तुत किये गये हैं। कहा गया है कि आपने तो कह दिया कि सम्यग्दृष्टि निरास्रव होते हैं; पर हमें तो उनका सम्पूर्ण आचरण मिथ्यादृष्टियों जैसा ही दिखाई देता है। ऐसी स्थिति में उन्हें निरास्रव कैसे कहा जा सकता है ? इस सशक्त आशंका का सोदाहरण एवं सयुक्ति निराकरण आगामी चार गाथाओं में किया जा
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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