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समयसार
२६२ रहा है; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया अत्थि सम्मदिट्ठिस्स। उवओगप्पाओगं बंधते कम्मभावेण ।।१७३।। होदूण णिरुवभोज्जा तह बंधदिजह हवंति उवभोज्जा। सत्तट्ठविहा भूदा णाणावरणादिभावेहिं ।।१७४।। संता दुणिरुवभोज्जा बाला इत्थी जहेह पुरिसस्स। बंधदि ते उवभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स ।।१७५।। एदेण कारणेण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो भणिदो। आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा ।।१७६।।
सर्वे पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययाः संति सम्यग्दृष्टेः । उपयोगप्रायोग्यं बध्नति कर्मभावेन ।।१७३।। भूत्वा निरुपभोग्यानितथा बध्नाति यथाभवंत्युपभोग्यानि। सप्ताष्टविधानि भूतानि ज्ञानावरणादिभावैः ।।१७४।। संति तु निरुपभोग्यानि बाला स्त्री यथेह पुरुषस्य। बध्नाति तानि उपभोग्यानि तरुणी स्त्री यथा नरस्य ।।१७५।। एतेन कारणेन तु सम्यग्दृष्टिरबंधको भणितः। आस्रवभावाभावे न प्रत्यया बंधका भणिताः ॥१७६।।
(हरिगीत) पहले बँधे सदृष्टिओं के कर्मप्रत्यय सत्त्व में। उपयोग के अनुसार वे ही कर्म का बंधन करें ।।१७३।। अनभोग्य हो उपभोग्य हों वे सभी प्रत्यय जिसतरह । ज्ञान-आवरणादि वसुविध कर्म बाँधे उसतरह ।।१७४।। बालवनिता की तरह वे सत्त्व में अनभोग्य हैं। पर तरुणवनिता की तरह उपभोग्य होकर बाँधते ।।१७५।। बस इसलिए सदृष्टियों को अबंधक जिन ने कहा।
क्योंकि आस्रवभाव बिन प्रत्यय न बंधन कर सके।।१७६।। सम्यग्दृष्टिजीव के पूर्वबद्ध समस्त प्रत्यय (द्रव्यास्रव) सत्तारूप में विद्यमान हैं। वे उपयोग के प्रयोगानुसार कर्मभाव (रागादि) के द्वारा नवीन बंध करते हैं।
निरुपभोग्य होकर भी वे प्रत्यय जिसप्रकार उपभोग्य होते हैं, उसीप्रकार सात-आठ प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्मों को बाँधते हैं।
जिसप्रकार जगत में बाल स्त्री पुरुष के लिए निरुपभोग्य है और तरुण स्त्री (युवती) पुरुष को बाँध लेती है; उसीप्रकार सत्ता में पड़े हुए वे कर्म निरुपभोग्य हैं और उपभोग्य होने पर, उदय में आने पर बंधन करते हैं।
इसकारण से सम्यग्दृष्टि को अबंधक कहा है; क्योंकि आस्रवभाव के अभाव में प्रत्ययों को