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समयसार
जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(शार्दूलविक्रीडित) संन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन् । उच्छिंदन्परवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भवनात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा ।।११६॥
(कुण्डलिया) स्वयं सहज परिणाम से, कर दीना परित्याग।
सम्यग्ज्ञानी जीव ने, बुद्धिपूर्वक राग ।। बुद्धिपूर्वक राग त्याग दीना है जिसने ।
और अबुद्धिक राग त्याग करने को जिसने ।। निजशक्तिस्पर्श प्राप्त कर पूर्णभाव को।
रहे निरास्रव सदा उखाड़े परपरिणति को ।।११६।। ज्ञानी आत्मा स्वयं ही अपने समस्त बुद्धिपूर्वक राग को निरन्तर छोड़ता हुआ और अबुद्धिपूर्वक राग को जीतने के लिए स्वशक्ति को बारंबार स्पर्श करता हुआ तथा समस्त परपरिणति को उखाड़ता हुआ एवं ज्ञान के पूर्णभाव में प्राप्त होता हुआ सदा ही निरास्रव रहता है।
इस कलश में ज्ञानी सम्यग्दृष्टि को निरास्रव सिद्ध करते हुए यह कहा गया है कि ज्ञानी ने बुद्धिपूर्वक होनेवाले रागादि को तो छोड़ ही दिया है और अबुद्धिपूर्वक होनेवाले रागादिभावों का नाश करने के लिए ज्ञानीजन बारम्बार स्वशक्ति का स्पर्श करते हैं।
तात्पर्य यह है कि वे बारंबार निज आत्मा को ज्ञान का ज्ञेय बनाते हैं, उसका ध्यान करते हैं; क्योंकि राग के नाश का एकमात्र यही उपाय है। इसप्रकार वे सम्पूर्ण आस्रवभावों का अभाव करते हुए सदा ही निरास्रव हैं।
पाण्डे राजमलजी एवं कविवर पण्डित बनारसीदासजी कहते हैं कि जो हमारे ज्ञान में ज्ञात हो जाये, उस राग को बुद्धिपूर्वक राग कहते हैं और जो ज्ञात न हो, उसे अबुद्धिपूर्वक राग कहते हैं; पर पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा उनसे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि सविकल्प दशा में होनेवाले रागादि परिणाम ज्ञानी को ज्ञात तो होते हैं; तथापि वे अबुद्धिपूर्वक ही हैं। उनके अनुसार ज्ञात होने मात्र से वे बुद्धिपूर्वक नहीं हो जाते।
इस कलश के भाव को स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचंदजी छाबड़ा भावार्थ में बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक का अर्थ करते समय इस बात को भी स्पष्ट कर देते हैं। वह भावार्थ इसप्रकार है -
"ज्ञानी ने समस्त राग को हेय जाना है। वह राग मिटाने के लिए उद्यम किया करता है, उसके आस्रवभाव की भावना का अभिप्राय नहीं है, इसलिए वह सदा निरास्रव ही कहलाता है।
परवृत्ति (परपरिणति) दो प्रकार की है - अश्रद्धारूप और अस्थिरतारूप । ज्ञानी ने अश्रद्धारूप