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________________ २५३ आस्रवाधिकार यतो हि ज्ञानिनो ज्ञानमयैर्भावैरज्ञानमया भावाः परस्परविरोधिनोऽवश्यमेव निरुध्यंते, ततोऽज्ञान-मयानां भावानां रागद्वेषमोहानां आस्रवभूतानां निरोधात् ज्ञानिनो भवत्येव आस्रवनिरोधः। अतो ज्ञानी नानवनिमित्तानि पुद्गलकर्माणि बध्नाति, नित्यमेवाकर्तृत्वात्, तानि नवानि न बध्नन् सदवस्थानि पूर्वबद्धानि ज्ञानस्वभावत्वात्केवलमेव जानाति ।।१६६॥ अथ रागद्वेषमोहानामास्रवत्वं नियमयति - भावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो। रागादिविप्पमुक्को अबंधगो जाणगो णवरिशा१६७। 'सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्माओं को आस्रव-बंध नहीं होते' - यह बतानेवाली इस गाथा का अर्थ आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार खोलते हैं - “परस्पर विरोधी भाव एकसाथ नहीं रह सकते, इसकारण ज्ञानी के ज्ञानमय भावों से अज्ञानमय भाव अवश्य ही निरोध को प्राप्त होते हैं। यही कारण है कि ज्ञानी के अज्ञानमय मोह-राग-द्वेषरूप आम्रवभावों का निरोध होता ही है। इसीलिए ज्ञानी आस्रव जिनका निमित्त है, ऐसे ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मों को नहीं बाँधता। सदा ही अकर्तृत्वस्वभावी एवं स्वयं ज्ञानस्वभावी होने से ज्ञानी नवीन कर्मों को न बाँधता हुआ सत्ता में विद्यमान पूर्वबद्ध कर्मों को मात्र जानता ही है।" अध्यात्म के इस कथन की अपेक्षा तो यह है कि चौथे गुणस्थान में जिन प्रकृतियों का बंध नहीं होता; वे प्रकृतियाँ ही मूलतः अनन्त संसार के बंध का कारण हैं तथा चतुर्थ गुणस्थान और उनके ऊपर के गुणस्थानों में जिन प्रकृतियों का बंध होता है, एक तो वे अनन्त संसार के बंध का कारण नहीं हैं, दूसरे उनका बंध भी अल्पस्थिति अनुभाग लिये होता है। अत: वह बंध न के बराबर ही है। इसी अपेक्षा को ध्यान में रखकर यहाँ (अध्यात्म में) यह कहा गया है कि ज्ञानी को बंध नहीं होता। इस गाथा में समागत विशेष ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि ज्ञानी के मिथ्यात्व और उसके साथ रहनेवाले रागादि तो हैं ही नहीं, अत: उनका कर्ता-धर्ता होने का तो सवाल ही नहीं है; किन्तु चारित्रमोह संबंधी जो भी रागादिभाव भूमिकानुसार विद्यमान हैं, ज्ञानी आत्मा उनका भी कर्ताधर्ता नहीं है, उनका तो वह सहज ज्ञाता-दृष्टा मात्र है। ज्ञानी को आस्रव-बंध नहीं होता' - इस कथन का तात्पर्य यही है कि ज्ञानी जिस भूमिका में हो, जिस गुणस्थान में हो; उस गुणस्थान तक जिन प्रकृतियों की बंधव्युच्छित्ति हो चुकी हो; ज्ञानी को उन प्रकृतियों का आस्रव-बंध नहीं होता। यही अभिप्राय तर्कसंगत है, शास्त्रसम्मत है और अनुभवसिद्ध भी है। अब इस आगामी गाथा १६७ में यह कहते हैं कि वास्तविक आस्रव तो मोह-राग-द्वेष ही हैं।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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