________________
२५४
समयसार
मूल गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
भावो रागादियुतो जीवेन कृतस्तु बंधको भणितः ।
रागादिविप्रमुक्तोऽबंधको ज्ञायकः केवलम् ।।१६७।। इह खलु रागद्वेषमोहसंपर्कजोऽज्ञानमय एव भावः, अयस्कांतोपलसंपर्कज इव कालायससूची, कर्म कर्तुमात्मानं चोदयति ।
तद्विवेकजस्तु ज्ञानमयः, अयस्कांतोपलविवेकज इव कालायससूची, अकर्मकरणोत्सुकमात्मानं स्वभावेनैव स्थापयति ।
ततो रागादिसंकीर्णोऽज्ञानमय एव कर्तृत्वे चोदकत्वाबंधकः। तदसंकीर्णस्तु स्वभावोद्भासकत्वात्केवलं ज्ञायक एव, न मनागपि बंधकः ।।१६७।।
(हरिगीत ) जीवकृत रागादि ही बंधक कहे हैं सूत्र में।
रागादि से जो रहित वह ज्ञायक अबंधक जानना ।।१६७।। जीवकृत रागादि भाव ही नवीन कर्मों का बंध करनेवाले कहे गये हैं, रागादि से रहित भाव बंधक नहीं हैं; क्योंकि वे तो मात्र ज्ञायक ही हैं।
इस गाथा का भाव आत्मख्याति में लोहचुम्बक का उदाहरण देकर इसप्रकार स्पष्ट किया है -
"जिसप्रकार लोहचुम्बकपाषाण के संसर्ग से लोहे की सुई में उत्पन्न हुआ भाव सुई को गति करने के लिए प्रेरित करता है; उसीप्रकार मोह-राग-द्वेष के संपर्क से उत्पन्न हुआ अज्ञानमय भाव ही आत्मा को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है।
तथा जिसप्रकार लोहचुम्बकपाषाण के विवेक से अर्थात् असंसर्ग से सुई में उत्पन्न हुआ भाव लोहे की सुई को गति न करनेरूप स्वभाव में स्थापित करता है; उसीप्रकार मोह-राग-द्वेष
और आत्मा के भेद जान लेनेवाले विवेक से उत्पन्न हआ ज्ञानमय भाव किसी भी कर्म को करने के लिए प्रेरित करने की उत्सुकता से रहित होता हुआ आत्मा को स्वभाव में ही स्थापित करता है। ___ इसलिए यह सिद्ध हुआ कि रागादि भावों से मिश्रित अज्ञानमय भाव ही कर्तृत्व का प्रेरक होने से बंध करनेवाला है, रागादि अमिश्रित ज्ञानभाव तो स्वभाव का प्रकाशक होने से मात्र ज्ञायक ही है, रंचमात्र भी बंध करनेवाला नहीं।" __ सीधी-सादी सहज सरल बात भी यही है कि रागादि और आत्मा में अभेद जाननेवाला अज्ञानमयभाव ही बंध करनेवाला है और आत्मा और मोह-राग-द्वेषरूप आस्रव भावों में भेद जाननेवाला ज्ञानभाव ही अबंधक है।
१६७वीं गाथा में यह कहा था कि मोह-राग-द्वेष भाव ही आस्रव हैं और १६६वीं गाथा में यह कहा था कि ज्ञानी के इन आस्रव भावों का अभाव है। अब १६८वीं गाथा में यह बता रहे हैं कि