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________________ २५२ समयसार तत आस्रवणनिमित्तत्वनिमित्तत्वात् रागद्वेषमोहा एवानवाः। ते चाज्ञानिन एव भवंतीति अर्थादेवापद्यते॥१६४-१६५॥ अथ ज्ञानिनस्तदभावं दर्शयति - णत्थि दु आसवबंधो सम्मादिट्ठिस्स आसवणिरोहो। संते पुव्वणिबद्धे जाणदि सो ते अबंधंतो।।१६६।। नास्ति त्वाम्रवबन्धः सम्यग्दृष्टेरास्रवनिरोधः। संति पूर्वनिबद्धानि जानाति स तान्यबध्नन् ।।१६६।। इसलिए मिथ्यात्वादि पुदगलपरिणामों के आस्रवण के निमित्तत्व के निमित्तभूत होने से राग-द्वेष-मोह ही आस्रव हैं। ये राग-द्वेष-मोह अज्ञानी के ही होते हैं - यह बात उक्त कथन के अर्थ से ही स्पष्ट हो जाती है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि मूल गाथाओं में यह बात स्पष्ट शब्दों में नहीं कही गई है, तथापि गाथाओं के अर्थ में से ही यह आशय निकलता है।" यद्यपि पुराने मिथ्यात्वादि द्रव्यकर्मों का उदय नये ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों के बंधन का निमित्त कारण है; तथापि जबतक आत्मा स्वयं राग-द्वेष-मोहरूप न परिणमे, तबतक ज्ञानावरणादि कर्मों का बंधन नहीं होता; इसकारण पुराने मिथ्यात्वादिरूप द्रव्यकर्मों का उदय नये ज्ञानावरणादि कर्मों के बंधन में निमित्त बने - इसके लिए रागादि भावों का निमित्तत्व आवश्यक है। इसीलिए यह कहा गया है कि मोह-राग-द्वेष भाव पुराने कर्मों के उदय के निमित्तत्व के निमित्त हैं और इसीलिए वे वास्तविक आस्रव हैं। ___ इसप्रकार यहाँ पुराने द्रव्यमिथ्यात्वादिक के उदय और राग-द्वेष-मोहरूप भावमिथ्यात्वादि को वास्तविक आस्रवपना सिद्ध किया गया है। यद्यपि कर्मों के नवीन बंध में पराने द्रव्य मिथ्यात्वादि कर्मों का उदय निमित्त कारण है: तथापि आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष भावों के बिना नवीन कर्मों का बंध नहीं होता। इसलिए आत्मा का अहित करनेवाले असली आस्रवभाव तो मोह-राग-द्वेषरूप आत्मा के विकारी भाव ही हैं। अब इस १६६वीं गाथा में यह कहते हैं कि ज्ञानीजनों के इन आस्रवों का अभाव है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) है नहीं आस्रव बंध क्योंकि आस्रवों का रोध है। सदृष्टि उनको जानता जो कर्म पूर्वनिबद्ध हैं ।।१६६।। सम्यग्दृष्टि के आस्रव जिसका निमित्त है - ऐसा बंध नहीं होता; क्योंकि उसके आस्रवों का निरोध है। नवीन कर्मों को नहीं बाँधता हुआ वह सम्यग्दृष्टि सत्ता में रहे हए पूर्वकर्मों को मात्र जानता है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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