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आस्रवाधिकार
२५१ तत्रास्रवस्वरूपमभिदधाति -
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य सणसण्णा दु । बहुविहभेया जीवे तस्सेव अणण्णपरिणामा ।।१६४।। णाणावरणादीयस्स ते दु कम्मस्स कारणं होति । तेसिं पि होदि जीवो य रागदोसादिभावकरो ।।१६५।।
मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च संज्ञासंज्ञास्तु। बहविधभेदा जीवे तस्यैवानन्यपरिणामाः ।।१६४।। ज्ञानावरणाद्यस्य ते तु कर्मणः कारणं भवंति।
तेषामपि भवति जीवश्च रागद्वेषादिभावकरः ।।१६५।। रागद्वेषमोहा आस्रवाः इह हि जीवे स्वपरिणामनिमित्ताः, अजडत्वे सति चिदाभासाः।
मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा: पुद्गलपरिणामाः ज्ञानावरणादिपुद्गलकर्मास्रवणनिमित्तत्वात्किलास्रवाः। तेषां तु तदास्रवणनिमित्तत्वनिमित्तं अज्ञानमया आत्मपरिणामा रागद्वेषमोहाः।
यहाँ समरांगण में समागत, मदोन्मत्त आस्रवभावरूपी जगविजयी योद्धा को सहजभाव से जीत लेनेवाले सम्यग्ज्ञानरूपी धनुर्धर योद्धा का स्मरण किया गया है।
इन गाथाओं की उत्थानिका लिखते हुए आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं - 'अब आस्रव का स्वरूप कहते हैं।' गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) मिथ्यात्व अविरति योग और कषाय चेतन-अचेतन । चितरूप जो हैं वे सभी चैतन्य के परिणाम हैं ।।१६४।। ज्ञानावरण आदिक अचेतन कर्म के कारण बने।
उनका भी तो कारण बने रागादि कारक जीव यह ।।१६५।। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग - ये चार आस्रवभाव संज्ञ अर्थात् चेतन के विकाररूप भी हैं और असंज्ञ अर्थात् पुदगल के विकाररूप भी हैं। जीव में उत्पन्न और अनेक भेदोंवाले संज्ञ आस्रव अर्थात् भावास्रव जीव के ही अनन्य परिणाम हैं। ___ असंज्ञ आस्रव अर्थात् मिथ्यात्वादि द्रव्यास्रव ज्ञानावरणादि कर्मों के बंधन में कारण (निमित्त) होते हैं और उन मिथ्यात्वादि भावों के होने में राग-द्वेष करनेवाला जीव कारण (निमित्त) होता है।
उक्त गाथाओं के भाव को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“अपने परिणामों के निमित्त से होनेवाले मोह-राग-द्वेषरूप आस्रवभाव जड़ नहीं हैं, चिदाभास हैं, चैतन्य के ही विकार हैं।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग - ये पुद्गल परिणाम ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्म के आस्रवण में निमित्त होने से वास्तव में आस्रव हैं और उन मिथ्यात्वादि पुद्गल परिणामों के आस्रवण के निमित्तत्व के निमित्त राग-द्वेष-मोह हैं, जो कि अज्ञानमय आत्मपरिणाम ही हैं।