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समयसार
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यतः स्वयमेव ज्ञानतया विश्वसामान्यविशेषज्ञानशीलमपि ज्ञानमनादिस्वपुरुषापराधप्रवर्तमानकर्ममलावच्छन्नत्वादेव बन्धावस्थायां सर्वतः सर्वमप्यात्मानमविजानदज्ञानभावेनैवेदमेवमवतिष्ठते, ततो नियतं स्वयमेव कर्मैव बन्धः । अत: स्वयं बन्धत्वात्कर्म प्रतिषिद्धम् ।।१६०।। अथ कर्मणो मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वं दर्शयति -
सम्मत्तपडिणिबद्धं मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहियं । तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिट्ठि त्ति णादव्वो ।।१६१।। णाणस्स पडिणिबद्धं अण्णाणं जिणवरेहि परिकहियं । तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि णादव्वो।।१६२।। चारित्तपडिणिबद्ध कसायं जिणवरेहि परिकहियं । तस्सोदयेण जीवो अचरित्तो होदि णादव्वो॥११३॥
इस बात को आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है -
“स्वयं ज्ञान होने के कारण विश्व के सर्वपदार्थों को सामान्य-विशेषरूप से जानने के स्वभाववाला यह ज्ञान (आत्मा) अनादिकाल से अपने पुरुषार्थ के अपराध से प्रवर्तमान कर्ममल से आच्छन्न होने के कारण ही बंधावस्था में अपने को अर्थात् सर्वप्रकार से सर्वज्ञेयों को जाननेवाले स्वयं को न जानता हुआ अज्ञानभाव से रह रहा है।
इससे यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बंधस्वरूप है। स्वयं बंधस्वरूप होने से ही कर्म का निषेध किया गया है।"
इसप्रकार यह सुनिश्चित हो गया कि समस्त शुभाशुभभाव कर्मबंधस्वरूप हैं, कर्मबंध के कारण हैं, आत्मा की दुर्दशा के प्रतीक हैं; अत: इन्हें मुक्ति के मार्ग में किसी प्रकार भी उपादेय नहीं माना जा सकता।
इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि शुभाशुभभाव में उलझा यह आत्मा सबको जाननेदेखने के स्वभाववाले निजभगवान आत्मा को नहीं जानता - इसी वजह से कर्ममल से लिप्त होता है और संसार-सागर में परिभ्रमण करता है।
अब आगामी गाथाओं में यह बताते हैं कि कर्म मोक्षमार्ग के तिरोधायी हैं, मोक्षमार्ग को रोकनेवाले हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) सम्यक्त्व प्रतिबंधक करम मिथ्यात्व जिनवर ने कहा। उसके उदय से जीव मिथ्या दृष्टि होता है सदा ।।१६१।। सद्ज्ञान प्रतिबंधक करम अज्ञान जिनवर ने कहा। उसके उदय से जीव अज्ञानी बने - यह जानना ।।१६२।। चारित्र प्रतिबंधक करम जिन ने कषायों को कहा। उसके उदय से जीव चारित्रहीन हो यह जानना ।।१६३।।